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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.27.6 
यमादिभिर्योगपथैरभ्यसन्श्रद्धयान्वित: ।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
यम-आदिभि:—यम इत्यादि; योग-पथै:—योगपद्धति के द्वारा; अभ्यसन्—अभ्यास करते हुए; श्रद्धया अन्वित:— परम श्रद्धा समेत; मयि—मुझमें; भावेन—भक्ति से; सत्येन—अमिश्रित; मत्-कथा—मेरे विषय की कथाएँ; श्रवणेन—सुनने से; —तथा ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को योग पद्धति की संयम आदि विधियों के अभ्यास द्वारा श्रद्धालु बनना चाहिए और मेरे कीर्तन तथा श्रवण द्वारा अपने आपको शुद्ध भक्ति के पद तक ऊपर उठाना चाहिए।
 
तात्पर्य
 योगाभ्यास की आठ अवस्थाएँ हैं—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि। यम तथा नियम का अर्थ है कठिन नियमों का पालन करते हुए संयम का अभ्यास करना। आसन से बैठने की विधियों का द्योतन होता है। इनके द्वारा श्रद्धा (निष्ठा) पद तक पहुँचा जा सकता है। शारीरिक कसरत के द्वारा योगाभ्यास अन्तिम लक्ष्य नहीं है; असली उद्देश्य तो मन को केन्द्रित करना तथा अपने आपको श्रद्धापूर्ण भक्ति के पद पर पहुँचने के लिए प्रशिक्षित करना है।

योग या अन्य किसी आध्यात्मिक क्रिया के अभ्यास में भावेन या भाव एक महत्त्वपूर्ण कारक है। भगवद्गीता (१०.८) में भाव की व्याख्या इस प्रकार की गई है—बुधा भावसमन्विता:—मनुष्य को कृष्णप्रेम के विचार में लीन रहना चाहिए। जब वह यह जान जाता है कि भगवान् कृष्ण ही सभी वस्तुओं के स्रोत हैं और सारी वस्तुएँ उन्हीं से उद्भूत होती हैं (अहं सर्वस्य प्रभव:) तो वह वेदान्त की इस सूक्ति—जन्माद्यस्य यत: (सभी वस्तुओं का मूल स्रोत) को समझता है और तब वह भाव या ईश्वर-प्रेम की प्रारम्भिक अवस्था में लीन हो जाता है।

रूप गोस्वामी ने भक्ति-रसामृत-सिंधु में बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया है कि किस तरह यह भाव प्राप्त किया जाता है। उनका कथन है कि सबसे पहले मनुष्य को श्रद्धालु बनना होता हैं (श्रद्धयान्वित:)। श्रद्धा की प्राप्ति या तो योगाभ्यास से जिसमें विधि-विधानों एवं आसनों का अभ्यास किया जाता है, या भक्ति योग में सीधे लगने से होती है जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है। भक्तियोग के नौ विभिन्न कार्यक्रमों में सबसे पहला है कीर्तन तथा भगवान् के विषय में श्रवण करना। इसका भी यहाँ उल्लेख हुआ है। मत्-कथा-श्रवणेन च। मनुष्य योग के विधि-विधानों का पालन करके श्रद्धयान्वित पद तक पहुँच सकता है और यही पद भगवान् के दिव्य कार्यकलापों के मात्र कीर्तन तथा श्रवण द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है। च शब्द महत्पवूर्ण है। भक्तियोग प्रत्यक्ष है और अन्य विधि अप्रत्यक्ष है। किन्तु यदि अप्रत्यक्ष विधि को अपनाया जाय तो भी तब तक सफलता प्राप्त नहीं होती जब तक कि भगवान् की महिमा के श्रवण तथा कीर्तन की प्रत्यक्ष विधि ग्रहण न की जाय। इसीलिए यहाँ सत्येन शब्द व्यवहृत हुआ है। स्वामी श्रीधर की टीका है कि सत्येन का अर्थ है निष्कपटेन, “छल-कपट के बिना”। निर्विशेषवादी छल-कपट से परिपूर्ण होते हैं। कभी-कभी वे भक्ति करने का स्वाँग भरते हैं, किन्तु उनका चरम लक्ष्य परमेश्वर से तादात्म्य रहता है। यह छल या कपट है। भागवत ऐसे कपट की अनुमति प्रदान नहीं करता। श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में स्पष्ट उल्लेख है—परमो निर्मत्सराणाम्—“यह श्रीमद्भागवत भाष्य उन लोगों के लिए हैं, जो ईर्ष्या से पूर्णतया मुक्त हैं।” इसी बात पर पुन: बल दिया गया है। श्रीभगवान् के प्रति पूर्णतया श्रद्धावान हुए और भगवान् की महिमा का श्रवण तथा कीर्तन किये बिना मुक्ति की कोई सम्भवाना नहीं रहती।

 
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