श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.27.7 
सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गत: ।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
सर्व—सभी; भूत—जीव; समत्वेन—समान रूप से देखने से; निर्वैरेण—बिना शत्रुता के; अप्रसङ्गत:—बिना घनिष्ट सम्बन्ध के; ब्रह्म-चर्येण—ब्रह्मचर्य के द्वारा; मौनेन—मौन व्रत से; स्व-धर्मेण—अपनी वृत्ति से; बलीयसा—फल को अर्पित करने से ।.
 
अनुवाद
 
 भक्तिमय सेवा सम्पन्न करने में मनुष्य को प्रत्येक जीव को समभाव से एवं किसी के प्रति शत्रुतारहित होते हुए घनिष्ठता से रहित होकर देखना होता है। उसे ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना होता है, गभ्भीर होना होता है और कर्म फलों को भगवान् को अर्पित करते हुए अपने नित्य कर्म करने होते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् का भक्त जो गभ्भीरतापूर्वक भक्ति में लगा रहता है उसके लिए समस्त जीव एकसमान हैं। जीवों की विभिन्न योनियाँ हैं, किन्तु भक्त बाहरी आवरण को नहीं देखता, उसे तो शरीर के भीतर निवास करने वाले आत्मा का दर्शन होता है। चूँकि प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है, अत: वह इनमें कोई अन्तर नहीं देखता। विद्वान भक्त की यही दृष्टि है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है कि किसी भक्त या विद्वान साधु को एक ज्ञानवान ब्राह्मण, कुत्ते, हाथी या गाय में कोई अन्तर नहीं दिखता, क्योंकि वह जानता है कि शरीर तो केवल बाह्यावरण है और आत्मा ही परमेश्वर का अंश है। भक्त की किसी भी जीव से शत्रुता नहीं होती, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सबसे घुल-मिल जाता है। इसकी तो रोक रहती है। अप्रसङ्गत: का अर्थ ही है “हर किसी के साथ घनिष्ठता का न होना।” भक्त को अपनी भक्ति से काम रहता है। अत: उसे अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए केवल भक्तों से मिलना जुलना चाहिए। उसे अन्यों से मिलने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि यद्यपि वह किसी को अपना शत्रु करके नहीं मानता, किन्तु उसका उठना-बैठना भक्ति में लगे हुए व्यक्तियों के साथ ही होता है।

भक्त को ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिए। ब्रह्मचर्य के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह विषयी जीवन से सर्वथा मुक्त हो; ब्रह्मचर्य-व्रत के अन्तर्गत अपनी पत्नी से सन्तुष्ट रहना भी अनुमत है। सर्वश्रेष्ठ नीति तो विषयी जीवन से सर्वथा बचे रहना है। प्राथमिकता इसी की होती है। अन्यथा धार्मिक नियमों के अनुसार भक्त को विवाह कर लेना चाहिए और अपनी पत्नी के साथ शान्तिपूर्वक रहना चाहिए।

भक्त को अनावश्यक नहीं बोलना चाहिए। गम्भीर भक्त के पास वृथा बोलने के लिए समय नहीं रहता। वह सदैव कृष्णभक्ति में व्यस्त रहता है। जब भी वह बोलता है, तो कृष्ण के विषय में बोलता है। मौन का अर्थ है चुप्पी। चुप्पी का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य बिल्कुल बोले ही नहीं, वरन् यह है कि व्यर्थ न बोले। उसे कृष्ण के विषय में बोलने के लिए अति उत्साहित रहना चाहिए। यहाँ पर जो अन्य महत्त्वपूर्ण बात कही गई है, वह है स्व-धर्मेण अर्थात् अपने नित्य कर्म में एकान्तभाव से लगे रहना जिसका अर्थ है कि भगवान् के नित्य दास के रूप में कार्य करना या कि कृष्णभावनामृत में कार्य करना। अगले शब्द बलीयसा का अर्थ है “सारे कार्यों का फल भगवान् को अर्पित करना।” भक्त कभी अपने इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई कार्य नहीं करता। वह जो भी कमाता है, जो भी खाता है और जो भी करता है उसे वह भगवान् को प्रसन्न करने के लिए अर्पित कर देता है।

 
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