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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 27: प्रकृति का ज्ञान  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  3.27.9 
सानुबन्धे च देहेऽस्मिन्नकुर्वन्नसदाग्रहम् ।
ज्ञानेन द‍ृष्टतत्त्वेन प्रकृते: पुरुषस्य च ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
स-अनुबन्धे—शारीरिक सम्बन्धों से; —तथा; देहे—शरीर के प्रति; अस्मिन्—इस; अकुर्वन्—न करते हुए; असत्- आग्रहम्—जीवन का देह-बोध; ज्ञानेन—ज्ञान के द्वारा; दृष्ट—देखकर; तत्त्वेन—वास्तविकता; प्रकृते:—पदार्थ की; पुरुषस्य—आत्मा की; —तथा ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को आत्मा तथा पदार्थ के ज्ञान के द्वारा देखने की शक्ति बढ़ानी चाहिए और उसे व्यर्थ ही शरीर के रूप में अपनी पहचान नहीं करनी चाहिए, अन्यथा वह शारीरिक सम्बन्धों खिंचा चला जाएगा।
 
तात्पर्य
 बद्धजीव अपने को शरीर समझकर शरीर को ‘मैं’ मान लेता है और शरीर से सम्बन्ध रखने वाली किसी भी वस्तु को ‘मेरी’। संस्कृत में इसे अहं ममता कहते हैं और यह समस्त बद्धजीवन का मूल कारण है। मनुष्य को चाहिए कि वस्तुओं को पदार्थ तथा आत्मा का संयोग मान के चले। उसे पदार्थ की प्रकृति तथा आत्मा की प्रकृति में अन्तर करना चाहिए और उसकी असली पहचान पदार्थ के साथ न होकर आत्मा के साथ होनी चाहिए। इस ज्ञान से उसे भ्रान्त देहात्मबुद्धि से बचना चाहिए।
 
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