यदा—जब; मन:—मन; स्वम्—अपने से; विरजम्—शुद्ध; योगेन—योगाभ्यास से; सु-समाहितम्—वशीभूत, नियंत्रित; काष्ठाम्—पूर्ण अंश; भगवत:—श्रीभगवान् का; ध्यायेत्—ध्यान करना चाहिए; स्व-नासा-अग्र—अपनी नाक का अग्रभाग; अवलोकन:—देखते हुए ।.
अनुवाद
जब इस योगाभ्यास से मन पूर्णतया शुद्ध हो जाय, तो मनुष्य को चाहिए कि अधखुलीं आखों से नाक के अग्रभाग में ध्यान को केन्द्रित करे और भगवान् के स्वरूप को देखे।
तात्पर्य
यहाँ स्पष्ट उल्लेख है कि मनुष्य को विष्णु के अंश का ध्यान करना चाहिए। काष्ठाम् शब्द परमात्मा अर्थात् विष्णु के अंश के अंश का सूचक है। भगवत: भगवान् विष्णु के लिए आया है। परमेश्वर तो कृष्ण हैं; उनसे पहला विस्तार बलदेव के रूप में होता है, फिर बलदेव से संकर्षण, अनिरुद्ध तथा अन्य रूप आते हैं और अन्त में पुरुष-अवतार आता है। जैसाकि पिछले श्लोकों में वर्णन आया है (पुरुषाचर्नम्) यह पुरुष परमात्मा के रूप में अंकित हुआ है। परमात्मा का वर्णन अगले श्लोकों में किया जाएगा। इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य को अपनी नाक के अग्रभाग में दृष्टि को स्थिर करके अपने मन को कला या विष्णु के पूर्ण अंश में एकाग्र करना चाहिए।
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