श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.28.18 
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम् ।
ध्यायेद्देवं समग्राङ्गं यावन्न च्यवते मन: ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
कीर्तन्य—गाये जाने के योग्य; तीर्थ-यशसम्—भगवान् की महिमा; पुण्य-श्लोक—भक्तों के; यश:-करम्—यश को बढ़ाने वाले; ध्यायेत्—ध्यान करना चाहिए; देवम्—भगवान् का; समग्र-अङ्गम्—सारे अंग; यावत्—जब तक; न— नहीं; च्यवते—विचलित होवे; मन:—मन ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् का यश वन्दनीय है, क्योंकि उनका यश भक्तों के यश को बढ़ाने वाला है। अत: मनुष्य को चाहिए कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तथा उनके भक्तों का ध्यान करे। मनुष्य को तब तक भगवान् के शाश्वत रूप का ध्यान करना चाहिए जब तक मन स्थिर न हो जाय।
 
तात्पर्य
 मनुष्य को निरन्तर अपना ध्यान भगवान् पर स्थिर रखना चाहिए। जब वह भगवान् के असंख्य रूपों—कृष्ण, विष्णु, राम, नारायण आदि—में से किसी एक का चिन्तन करने का अभ्यस्त हो जावेगा तो उसे योग की सिद्धि प्राप्त हो सकेगी। इसकी पुष्टि ब्रह्म संहिता में हुई है—जिस व्यक्ति में भगवान् के प्रति शुद्ध प्रेम उपज चुका है और जिसके नेत्रों में दिव्य प्रेम का अंजन लग चुका है, वह निरन्तर अपने अन्त:करण में भगवान् का दर्शन करता है। भक्तगण विशेष रूप से श्यामसुन्दर के सुन्दर श्याम रूप का दर्शन करते हैं। यही योग की सिद्धि है। इस योग पद्धति को तब तक चालू रखना चाहिए जब तक मन क्षण भर भी न चलायमान हो। ॐ तद् विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय:—विष्णु का स्वरूप सर्वोच्च पुरुष और ऋषियों तथा मुनियों को सदैव दृष्टिगोचर होता है।

भक्त जब मन्दिर में भगवान् के रूप की पूजा करता है, तो उससे भी इसी उद्देश्य की पूर्ति होती है। मन्दिर में भगवान् की पूजा तथा भगवान् के रूप का ध्यान—इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि भगवान् का स्वरूप वही रहता है चाहे वह मन में प्रकट हो या किसी सीमेंट गारे के रूप में। भक्तों के दर्शनार्थ आठ प्रकार के स्वरूपों की संस्तुति की गई है। ये स्वरूप बालू, मिट्टी, काष्ठ या पत्थर के बनाये जा सकते हैं, या इनका मन में ध्यान किया जा सकता है या रत्नों, धातु या विविध रंगों से बनाया जा सकता है, किन्तु इन सब रूपों का एक सा महत्त्व है। ऐसा नहीं है कि यदि कोई किसी रूप का मन में ध्यान करता है, तो मन्दिर में पूजा किये जाने वाले रूप से वह भिन्न होता है। भगवान् परम हैं, अत: इन दोनों में कई अन्तर नहीं है। निर्विशेषवादी भगवान् के शाश्वत रूप की अवहेलना करके किसी गोलाकार रूप (शून्य) की कल्पना करते हैं। वे विशेष रूप से ओंकार को वरीयता प्रदान करते हैं, किन्तु उसका भी स्वरूप होता है। इसी प्रकार भगवान् की मूर्तियाँ तथा चित्र हैं।

इस श्लोक का अन्य महत्त्वपूर्ण शब्द पुण्यश्लोकयशस्करम् है। भक्त पुण्यश्लोक कहलाता है। जिस प्रकार भगवान् के पवित्र नाम के जप से कोई भी पवित्र हो जाता है उसी तरह पवित्र भक्त के नाम के जपमात्र के वह पवित्र हो जाता है। भगवान् का शुद्ध भक्त तथा स्वयं भगवान् अभिन्न हैं। कभी-कभी पवित्र भक्त के नाम का जप सम्भव होता है। यह एक पवित्र विधि है। एक बार भगवान् चैतन्य गोपियों के पवित्र नामों का कीर्तन कर रहे थे तो उनके शिष्यों ने उनकी आलोचना की, “आप गोपियों के नामों का कीर्तन क्यों कर रहे हैं? आप कृष्ण का कीर्तन क्यों नहीं करते?” भगवान् चैतन्य इस आलोचना से चिड़चिड़ाये अत: उनके शिष्यों तथा उनके बीच कुछ मनमुटाव हो गया। उन्होंने कीर्तन की दिव्य विधि के विषय में इस तरह शिक्षा देने के लिए उन्हें प्रताडि़त करना चाहा।

भगवान् की यह विशेषता है कि जो भक्त उनके कार्यकलापों से सम्बन्धित होते हैं, वे भी यश को प्राप्त होते हैं। अर्जुन, प्रह्लाद, जनक महाराज, बलि महाराज तथा अन्य भक्तों ने संन्यास आश्रम भी नहीं ग्रहण किया था, अपितु गृहस्थ थे। इनमें से कुछ, यथा प्रह्लाद महाराज तथा बलि महाराज आसुरी परिवारों में जन्मे थे। प्रह्लाद महाराज का पिता असुर था और बलि महाराज प्रह्लाद के पौत्र थे, तो भी भगवान् की संगति के कारण वे प्रसिद्ध हुए। जो कोई भी भगवान् के शाश्वत साहचर्य में रहता है, वह भगवान् के साथ यश का भागी होता है। निष्कर्ष यह निकला कि सिद्ध योगी को सदैव भगवान् के स्वरूप का दर्शन करते रहना चाहिए और जब तक मन इस प्रकार स्थिर नहीं हो जाता तब तक उसे योग का अभ्यास करते रहना चाहिए।

 
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