श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  3.28.19 
स्थितं व्रजन्तमासीनं शयानं वा गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेच्छुद्धभावेन चेतसा ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
स्थितम्—खड़े रहते हुए; व्रजन्तम्—चलते; आसीनम्—बैठे; शयानम्—लेटे; वा—अथवा; गुहा-आशयम्—हृदय में वास करने वाले भगवान्; प्रेक्षणीय—सुन्दर; ईहितम्—लीलाएँ; ध्यायेत्—ध्यान करना चाहिए; शुद्ध-भावेन—शुद्ध; चेतसा—मन से ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार भक्ति में सदैव तल्लीन रहकर योगी अपने अन्तर में भगवान् को खड़े रहते हुए, चलते, लेटे या बैठे हुए देखता है, क्योंकि परमेश्वर की लीलाएँ सुन्दर तथा आकर्षक होती हैं।
 
तात्पर्य
 अपने मन से भगवान् के स्वरूप का ध्यान करने की क्रिया तथा भगवान् के यश तथा लीलाओं के कीर्तन की क्रिया एकसमान है। अन्तर केवल इतना है कि भगवान् की लीलाओं को सुनना एवं मन को स्थिर करना, मन के भीतर भगवान् के रूप का ध्यान धरने की अपेक्षा सरल है, क्योंकि इस युग में जब भी कोई भगवान् का चिन्तन करने लगता है, तो मन विचलित हो जाता है और नाना प्रकार की उद्विग्नताओं से मन के भीतर भगवान् को देखने की विधि में गतिरोध आ जाता है। किन्तु जब भगवान् की दिव्य लीलाओं की प्रशंसा करते हुए शब्दोच्चार किया जाता है, तो हम सुनने के लिए बाध्य हो जाते हैं। यह श्रवण की क्रिया मन में प्रवेश करती है और योग का अभ्यास स्वत: सम्पन्न होता जाता है। उदाहरणार्थ, यदि भगवान् द्वारा गोचारण के लिए अपनी गौवों तथा मित्रों के साथ चारागाह तक जाने का वर्णन भागवतम् से पढ़ा जा रहा हो और यदि इसे कोई बालक भी सुने तो उसको सुनने से ही भगवान् की लीलाओं के ध्यान का लाभ प्राप्त हो सकता है। सुनने में मन लगना भी सम्मिलित होता है। भगवान् चैतन्य ने संस्तुति की है कि इस कलियुग में मनुष्य को सदैव भगवद्गीता का कीर्तन तथा श्रवण करना चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि महात्माओं को चाहिए कि वे भगवान् की महिमा के कीर्तन में लगे रहें जिससे अन्य लोग सुन करके ही वैसा ही लाभ उठा सकें। योग के लिए भगवान् की दिव्य लीलाओं का, चाहे वे खड़े हों, चलते हों या लेटे हों, ध्यान आवश्यक है।
 
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