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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.28.21 
सञ्चिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दं
वज्राङ्कुशध्वजसरोरुहलाञ्छनाढ्यम् ।
उत्तुङ्गरक्तविलसन्नखचक्रवाल-
ज्योत्‍स्‍नाभिराहतमहद्‍धृदयान्धकारम् ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
सञ्चिन्तयेत्—उसे केन्द्रित करना चाहिए; भगवत:—भगवान् के; चरण-अरविन्दम्—चरणकमलों पर; वज्र—वज्र; अङ्कुश—हाथी हाँकने का दंड, अंकुश; ध्वज—पताका; सरोरुह—कमल; लाञ्छन—चिह्न से; आढ्यम्—अलंकृत; उत्तुङ्ग—उमड़े हुए; रक्त—लाल; विलसत्—चमकीले; नख—नाखून; चक्रवाल—चन्द्रमण्डल; ज्योत्स्नाभि:— चन्द्रिका से; आहत—दूर किया गया; महत्—घना; हृदय—हृदय का; अन्धकारम्—अँधेरा ।.
 
अनुवाद
 
 भक्त को चाहिए कि सर्वप्रथम वह अपना मन भगवान् के चरणकमलों में केन्द्रित करे जो वज्र, अंकुश, ध्वजा तथा कमल चिन्हों से सुशोभित रहते हैं। सुन्दर माणिक से उनके नाखूनों की शोभा चन्द्रमण्डल से मिलती-जुलती है और हृदय के गहन तम को दूर करने वाली है।
 
तात्पर्य
 मायावादी कहता है कि वह परम सत्य के निराकार अस्तित्व को अपने मन में स्थिर कर पाने में अक्षम रहता है, अत: किसी भी रूप की कल्पना करके उस कल्पित रूप में मन को स्थिर करना चाहिए; किन्तु यहाँ पर ऐसी विधि की संस्तुति नहीं की गई। कल्पना सदैव कल्पना ही रहती है और इससे कल्पना ही प्रतिफलित होती है।

यहाँ पर भगवान् के शाश्वत रूप का सुस्पष्ट वर्णन दिया गया है। भगवान् के चरणतल को वज्र, पताका, कमल तथा अंकुश की आकृतियों से मिलने वाली स्पष्ट रेखाओं से युक्त अंकित किया गया है। उनके पैर के नाखूनों की कान्ति चन्द्रमा के प्रकाश (चन्द्रिका) के तुल्य है। यदि योगी भगवान् के चरणतल पर अंकित चिह्नों तथा उनके नाखूनों की चमक पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है, तो वह इस संसार के अज्ञान-अंधकार से मुक्त हो सकता है। यह मुक्ति ध्यान से नहीं, अपितु भगवान् के नाखूनों की कान्ति से उत्पन्न प्रकाश के दर्शन से प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में, यदि कोई इस संसार के अज्ञान के अंधकार से छूटना चाहता है, तो उसे पहले अपना मन भगवान् के चरणकमलों में स्थिर करना चाहिए।

 
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