श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.28.23 
जानुद्वयं जलजलोचनया जनन्या
लक्ष्म्याखिलस्य सुरवन्दितया विधातु: ।
ऊर्वोर्निधाय करपल्लवरोचिषा यत्
संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
जानु-द्वयम्—घुटनों तक; जलज-लोचनया—कमल-नेत्र वाली; जनन्या—माता; लक्ष्म्या—लक्ष्मी द्वारा; अखिलस्य—सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की; सुर-वन्दितया—देवताओं द्वारा पूजित; विधातु:—ब्रह्मा को; ऊर्वो:—जाँघों पर; निधाय—रख कर; कर-पल्लव-रोचिषा—अपनी कान्तिमान अँगुलियों से; यत्—जो; संलालितम्—चापे जाकर, दबाये जाकर; हृदि—हृदय में; विभो:—भगवान् का; अभवस्य—इस संसार से परे; कुर्यात्—ध्यान करना चाहिए ।.
 
अनुवाद
 
 योगी को चाहिए कि वह सभी देवताओं द्वारा पूजित तथा सर्वोपरि जीव ब्रह्मा की माता, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मीजी के कार्यकलापों में अपने हृदय को स्थिर कर दे। वे सदैव दिव्य भगवान् के पाँवों तथा जंघाओं को चाँपती हुई देखी जा सकती हैं। इस प्रकार वे सावधानी के साथ उनकी सेवा करती हैं।
 
तात्पर्य
 ब्रह्मा इस ब्रह्माण्ड के नियुक्त स्वामी हैं। चूँकि गर्भोदकशायी विष्णु उनके पिता हैं, अत: लक्ष्मी स्वत: उनकी माँ हुईं। लक्ष्मीजी समस्त देवों तथा अन्य लोकों के वासियों द्वारा भी पूजित हैं। मनुष्य भी ऐश्वर्य की देवी से वर प्राप्त करने के इच्छुक रहते हैं। ये लक्ष्मीजी गर्भोदकशायी भगवान् नारायण के चरण तथा जंघा चापने में सदैव व्यस्त रहती हैं। यहाँ पर ब्रह्मा को लक्ष्मी-पुत्र बताया गया है, किन्तु वास्तव में वे उनके गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए थे।

ब्रह्मा का जन्म साक्षात् भगवान् के उदर से होता है। गर्भोदकशायी विष्णु के उदर से एक कमल का फूल निकलता है और उसी से ब्रह्मा का जन्म होता है। अत: भगवान् की जाँघें दबाती हुई लक्ष्मीजी को सामान्य पत्नी का आचरण नहीं समझना चाहिए। भगवान् सामान्य पुरुष तथा स्त्री के आचरण से परे हैं। अभवस्य शब्द महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह बताता है कि भगवान् लक्ष्मी की सहायता के बिना ही ब्रह्मा को उत्पन्न कर सके।

चूँकि दिव्य आचरण संसारी आचरण से भिन्न होता है, अत: यह नहीं मान लेना चाहिए कि भगवान् अपनी पत्नी से वैसे ही सेवा कराते हैं जिस प्रकार कोई देवता या मनुष्य अपनी पत्नी से कराता है। यहाँ यह सलाह दी गई है कि योगी सदैव अपने हृदय में यह चित्र रखे। भक्त सदा ही लक्ष्मी तथा नारायण के बीच ऐसे ही सम्बन्ध का चिन्तन करता है, अत: वह निर्विशेषवादियों तथा शून्यवादियों की तरह मानसिक ध्यान नहीं करता।

भव का अर्थ है “जो भौतिक शरीर स्वीकार करे” तथा अभव का अर्थ है “जो भौतिक शरीर न स्वीकार करे, किन्तु मूल आध्यात्मिक शरीर में प्रकट हो।” भगवान् नारायण किसी भौतिक वस्तु से नहीं जन्मे। पदार्थ से ही पदार्थ उत्पन्न होता है, किन्तु वे पदार्थ से उत्पन्न नहीं हैं। ब्रह्मा का जन्म सृष्टि के बाद हुआ, किन्तु भगवान् सृष्टि के पूर्व उपस्थित थे, अत: भगवान् का कोई भौतिक शरीर नहीं है।

 
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