फिर, ध्यान में योगी को अपना मन भगवान् की जाँघों पर स्थित करना चाहिए जो समस्त शक्ति की आगार हैं। वे अलसी के फूलों की कान्ति के समान सफेद-नीली हैं और जब भगवान् गरुड़ पर चढ़ते हैं, तो ये जाँघें अत्यन्त भव्य लगती है। योगी को चाहिए कि वह भगवान् के गोलाकार नितम्बों का ध्यान धरे, जो करधनी से घिरे हुए है और यह करधनी भगवान् के एड़ी तक लटकते पीताम्बर पर टिकी हुई है।
तात्पर्य
भगवान् समस्त बल के आगार है और उनका यह बल उनके दिव्य शरीर की जंघाओं में बसता है। उनका सम्पूर्ण शरीर सारे धन, सारे बल, सारे यश, सारे सौंदर्य, सारे ज्ञान तथा सारे त्याग—इन ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है। योगी को सलाह दी गई है कि वह भगवान् के दिव्य रूप का, पाँवों के तलुवे से प्रारम्भ करके क्रमश: घुटनों, जाँघों की ओर उठकर अन्त में मुख का ध्यान करे। भगवान् के ध्यान की क्रिया उनके पाँवों से शुरू होती है।
भगवान् के दिव्य रूप का वर्णन मन्दिरों में अर्चाविग्रह अथवा मूर्ति द्वारा सही-सही प्रदर्शित होता है। सामान्यत: भगवान् की मूर्ति का अधोभाग पीले रेशमी वस्त्र से ढका रहता है। यह वैकुण्ठ-वेश है अथवा भगवान् द्वारा आध्यात्मिक जगत में धारण किए जाने वाला वेश है यह वस्त्र भगवान् के टखनों तक लटकता है। इस प्रकार चूँकि योगी को अनेक दिव्य वस्तुओं पर ध्यान लगाना होता है, अत: कोई कारण प्रतीत नहीं होता है कि वह किसी काल्पनिक वस्तु का ध्यान करे, जैसाकि निराकारी तथाकथित योगियों में प्रथा है।
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