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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.28.25 
नाभिह्रदं भुवनकोशगुहोदरस्थं
यत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपद्मम् ।
व्यूढं हरिन्मणिवृषस्तनयोरमुष्य
ध्यायेद्‍द्वयं विशदहारमयूखगौरम् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
नाभि-ह्रदम्—नाभि रूपी सरोवर; भुवन-कोश—समस्त लोकों का; गुहा—आधार; उदर—आमाशय पर; स्थम्— स्थित; यत्र—जहाँ; आत्म-योनि—ब्रह्मा का; धिषण—वास; अखिल-लोक—समस्त लोकों सहित; पद्मम्—कमल; व्यूढम्—ऊपर निकला; हरित्-मणि—मरकत मणि के समान; वृष—अति सुन्दर; स्तनयो:—दोनों चूचुक; अमुष्य— भगवान् के; ध्यायेत्—ध्यान करे; द्वयम्—युगल; विशद—श्वेत; हार—मोती की मालाओं का; मयूख—प्रकाश से; गौरम्—गोरा ।.
 
अनुवाद
 
 तब योगी को चाहिए कि वह भगवान् के उदर के मध्य में स्थित चंद्रमा जैसी नाभि का ध्यान करे। उनकी नाभि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आधारशिला है जहाँ से समस्त लोकों से युक्त कमलनाल प्रकट हुआ। यह कमल आदि जीव ब्रह्मा का वासस्थान है। इसी तरह योगी को अपना मन भगवान् के स्तनाग्रों पर केन्द्रित करना चाहिए जो श्रेष्ठ मरकत मणि की जोड़ी के सदृश है और जो उनके वक्षस्थल को अलंकृत करने वाली मोतीमाला की दुग्धधवल किरणों के कारण श्वेत प्रतीत होती है।
 
तात्पर्य
 इसके पश्चात् योगी को भगवान् की नाभि का ध्यान करने के लिए कहा गया है, जो समस्त भौतिक सृष्टि का आधार है। जिस प्रकार शिशु नाल के द्वारा अपनी माता से जुड़ा होता है उसी प्रकार पहले पहल जन्म लेने वाले प्राणी ब्रह्माजी, भगवान् की परमेच्छा से एक कमलनाल द्वारा भगवान् से जुड़े रहते हैं। पिछले श्लोक में कहा गया है कि भगवान् के पाँव, टखने तथा जाँघें दबाती हुई लक्ष्मीजी ब्रह्मा की माता कहलाती हैं, किन्तु वास्तव में ब्रह्मा अपनी माता के उदर से उत्पन्न न होकर भगवान् के उदर से प्रकट हुए हैं। ये भगवान् के अचिन्त्य कार्यकलाप हैं जिनके विषय में यह सोचने की आवश्यकता नहीं है कि पिता ने किस प्रकार बच्चे को जन्म दिया।

ब्रह्म-संहिता में बताया गया है कि भगवान् के प्रत्येक अंग में अन्य किसी भी अंग की शक्ति रहती है, क्योंकि वह सब कुछ आध्यात्मिक है, अत: उनके अंग बद्ध भी नहीं है। भगवान् अपने कानों से देख सकते हैं जबकि भौतिक कान केवल सुन सकता है, देख नहीं सकता, किन्तु ब्रह्म-संहिता से हम जानते हैं कि भगवान् अपने कानों से भी देख सकते हैं और आँखों से सुन सकते हैं। उनके दिव्य शरीर का कोई भी अंग किसी अन्य अंग का कार्य सम्पन्न कर सकता है। उनका उदर समस्त लोकों का आधार है। ब्रह्माजी समस्त लोकों के स्रष्टा का पद धारण किये हैं, किन्तु उनकी अभिकल्पना-शक्ति भगवान् के उदर से उत्पन्न होती है। ब्रह्माण्ड की कोई भी सृजन क्रिया भगवान् से सीधे सम्बद्ध रहती है। मोतियों की माला जिससे भगवान् के शरीर का ऊपरी भाग अलंकृत होता है, वह भी आध्यात्मिक है, अत: योगी को सलाह दी जाती है कि वह उनके वक्षस्थल को अलंकृत करने वाले मोतियों की श्वेत द्युति को निहारे।

 
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