भृत्यानुकम्पितधियेह गृहीतमूर्ते:
सञ्चिन्तयेद्भगवतो वदनारविन्दम् ।
यद्विस्फुरन्मकरकुण्डलवल्गितेन
विद्योतितामलकपोलमुदारनासम् ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
भृत्य—भक्तों के लिए; अनुकम्पित-धिया—अनुकम्पावश; इह—इस संसार में; गृहीत-मूर्ते:—विभिन्न रूपों को धारण करने वाला; सञ्चिन्तयेत्—ध्यान करे; भगवत:—भगवान् का; वदन—मुखमण्डल; अरविन्दम्—कमल सदृश; यत्—जो; विस्फुरन्—चमचमाता; मकर—मगर की आकृति का; कुण्डल—कान की बालियों का; वल्गितेन—हिलने-डुलने से; विद्योतित—प्रकाशित; अमल—स्वच्छ; कपोलम्—गाल; उदार—सुस्पष्ट, सुघड़; नासम्—नाक ।.
अनुवाद
तब योगी को भगवान् के कमल-सदृश मुखमण्डल का ध्यान करना चाहिए, जो इस जगत में उत्सुक भक्तों के लिए अनुकम्पावश अपने विभिन्न रूप प्रकट करते हैं। उनकी नाक अत्यन्त उन्नत है और उनके स्वच्छ गाल उनके मकराकृत कुण्डलों के हिलने से प्रकाशमान हो रहे हैं।
तात्पर्य
भगवान् अपने भक्तों के लिए प्रगाढ़ अनुकम्पा के वशीभूत होकर भौतिक जगत में अवतरित होते हैं। इस जगत में भगवान् के अवतार लेने के दो कारण होते हैं। जब-जब धर्म के पालन में त्रुटि आ जाती है और अधर्म की प्रधानता होती है, तो भगवान् अपने भक्तों की रक्षा करने तथा अभक्तों के विनाश के लिए अवतरित होते हैं। जब वे प्रकट होते हैं तो उनका मुख्य प्रयोजन भक्तों को सान्त्वना प्रदान करना होता है। असुरों को नष्ट करने के लिए उन्हें स्वयं आने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उनके अनेक पार्षद (एजेन्ट) हैं, यहाँ तक कि उनकी माया में इतनी शक्ति होती है कि उनका वध कर दें, किन्तु जब वे अपने भक्तों पर दया दिखाने आते हैं, तो चलते-चलाते अभक्तों का वध कर देते हैं।
भगवान् सदैव ऐसे रूप में प्रकट होते हैं जो किसी विशेष प्रकार के भक्त को प्रिय हो। भगवान् के लाखों रूप हैं, किन्तु वे सब एक हैं। जैसाकि ब्रह्म-संहिता में कहा गया है— अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्—भगवान् के सभी रूप एक हैं, किन्तु कुछ भक्त उन्हें राधाकृष्ण के रूप में देखना चाहते हैं तो कुछ सीता-रामचन्द्र के रूप में, अन्य भक्त लक्ष्मी-नारायण के रूप में तो दूसरे चतुर्भुज नारायण वासुदेव के रूप में चाहते हैं। भगवान् के असंख्य रूप है, किन्तु वे उस एक ही रूप में, जो भक्त को प्रिय हो, अवतरित होते हैं। योगी को सलाह दी जाती है कि वह भक्तों के द्वारा मान्य रूपों का ही ध्यान करे। वस्तुत: योगी को भगवान् के उस रूप का ध्यान करना चाहिए जिसका अनुभव भगवान् के शुद्ध भक्त ने किया हो। योगी का अर्थ है भक्त। जो योगी शुद्ध भक्त नहीं है उन्हें भक्तों के पदचिह्नों पर चलना चाहिए। यहाँ पर इसका विशेष रूप से उल्लेख है कि योगी को इस प्रकार से मान्य रूप का ध्यान करना चाहिए, वह भगवान् के किसी रूप को मन से नहीं बना सकता।
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