तस्य—भगवान् की; अवलोकम्—चितवन; अधिकम्—प्राय:; कृपया—अनुग्रह से; अतिघोर—अत्यन्त भयावह; ताप-त्रय—तीन प्रकार के कष्ट; उपशमनाय—कम करने के लिए; निसृष्टम्—चितवन; अक्ष्णो:—आँखों से; स्निग्ध—चिकनी, प्यारी; स्मित—मुस्कान; अनुगुणितम्—के साथ-साथ; विपुल—प्रचुर; प्रसादम्—दया से युक्त; ध्यायेत्—ध्यान करे; चिरम्—दीर्घकाल तक; विपुल—पूर्ण; भावनया—भक्ति से; गुहायाम्—हृदय में ।.
अनुवाद
योगी को चाहिए कि भगवान् के नेत्रों की कृपापूर्ण चितवन का ध्यान पूर्ण समर्पण भाव से करे, क्योंकि उससे भक्तों के अत्यन्त भयावह तीन प्रकार के कष्टों का शमन होता है। प्रेमभरी मुसकान से युक्त उनकी चितवन विपुल प्रसाद से पूर्ण है।
तात्पर्य
जब तक मनुष्य इस भौतिक शरीर के साथ बद्धजीवन में रहता है, तो वह नाना प्रकार की चिन्ताओं तथा कष्टों को भोगता रहता है। कोई भी भौतिक शक्ति के प्रभाव से बच नहीं सकता, भले ही वह दिव्य पद को क्यों न प्राप्त हो। कभी-कभी अड़चनें आती हैं, किन्तु भक्तों
की सारी चिन्ताएँ तथा कष्ट भगवान् के सुन्दर रूप का या उनके मुसकान भरे मुख का चिन्तन करते ही दूर हो जाते हैं। भगवान् अपने भक्तों को असंख्य वर देने वाले हैं और सबसे बड़ा प्रसाद तो उनका मुसकाता चेहरा है, जो भक्तों के लिए कृपा से पूर्ण है।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥