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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.28.32 
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र-
शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य
भ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
हासम्—मुसकान; हरे:—श्री हरि का; अवनत—झुका हुआ; अखिल—समस्त; लोक—मनुष्यों के लिए; तीव्र शोक—घोर दुख से उत्पन्न; अश्रु-सागर—आँसुओं का समुद्र; विशोषणम्—सुखाने के लिए; अति-उदारम्—अत्यन्त उपकारी; सम्मोहनाय—मोहने के लिए; रचितम्—उत्पन्न किया गया; निज-मायया—अपनी अन्तरंगा शक्ति से; अस्य—इसका; भ्रू-मण्डलम्—टेढ़ी भौंहें; मुनि-कृते—मुनियों की भलाई के लिए; मकर-ध्वजस्य—कामदेव का ।.
 
अनुवाद
 
 इसी प्रकार योगी को भगवान् श्री हरि की उदार मुसकान का ध्यान करना चाहिए जो घोर शोक से उत्पन्न उनके अश्रुओं के समुद्र को सुखाने वाली है, जो उनको नमस्कार करते हैं। उसे भगवान् की चाप सदृश भौंहों का भी ध्यान करना चाहिए जो मुनियों की भलाई के लिए कामदेव को मोहने के लिए भगवान् की अन्तरंगा शक्ति से प्रकट है।
 
तात्पर्य
 यह सारा ब्रह्माण्ड कष्टों से परिपूर्ण है, अत: इस ब्रह्माण्ड के निवासी गहन से सदैव आँसू बहाते रहते हैं। ऐसे अश्रुओं से जल का विशाल समुद्र तैयार हो जाता है, किन्तु जो भगवान् की शरण में चला जाता है उसके लिए आसुओं का यह समुद्र तुरन्त सूख जाता है। उसे केवल भगवान् की मोहक मुसकान के दर्शन करने की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, भगवान् की मोहक मुसकान के दर्शन होते ही संसार का सारा शोक शमित हो जाता है।

इस श्लोक में कहा गया है कि भगवान् की भौंहें इतनी मोहक हैं कि उससे ऐन्द्रिय आकर्षण का सौन्दर्य भूल जाता है। काम का देवता ‘मकरध्वज’ कहलाता है। भगवान् की मोहक भौंहें भक्तों तथा मुनियों को भौतिक वासना तथा काम वासना से मोहित होने से बचाती हैं। महान् आचार्य यामुनाचार्य ने कहा है कि जब से उन्होंने भगवान् की मोहक लीलाएँ देखीं तब से उनके लिए विषयी जीवन के सारे आकर्षण हेय बन गये हैं और विषय-सुख का विचार उठते ही उस पर थूक कर वे अपना मुख मोड़ लेते हैं। अत: यदि कोई काम-वासना से विलग रहना चाहता है, तो उसे भगवान् की मनोहारी भौंहों तथा मोहक मुसकान को देखना चाहिए।

 
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