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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  3.28.33 
ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ-
भासारुणायिततनुद्विजकुन्दपङ्‌क्ति ।
ध्यायेत्स्वदेहकुहरेऽवसितस्य विष्णोर्
भक्त्यार्द्रयार्पितमना न पृथग्दिद‍ृक्षेत् ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
ध्यान-अयनम्—सरलतापूर्वक ध्यान किया गया; प्रहसितम्—हँसी, अट्टहास; बहुल—प्रभूत; अधर-ओष्ठ—उनके होठों की; भास—भव्यता से; अरुणायित—गुलाबी हुए; तनु—छोटे-छोटे; द्विज—दाँत; कुन्द-पङ्क्ति—चमेली की कलियों की पंक्ति के समान; ध्यायेत्—ध्यान करे; स्व-देह-कुहरे—अपने हृदय के मध्य में; अवसितस्य—वास करने वाला; विष्णो:—विष्णु का; भक्त्या—भक्तिपूर्वक; आर्द्रया—प्रेम में ड़ूबा; अर्पित-मना:—मन को स्थिर किये; — नहीं; पृथक्—अन्य कुछ; दिदृक्षेत्—देखने की कामना करे ।.
 
अनुवाद
 
 योगी को चाहिए कि प्रेम में ड़ूबा हुआ भक्तिपूर्वक अपने अन्तरतम में भगवान् विष्णु के अट्टहास का ध्यान करे। उनका यह अट्टहास इतना मोहक है कि इसका सरलता से ध्यान किया जा सकता है। भगवान् के हँसते समय उनके छोटे-छोटे दाँत चमेली की कलियों जैसे दिखते हैं और उनके होठों की कान्ति के कारण गुलाबी प्रतीत होते हैं। एक बार अपना मन उनमें स्थिर करके, योगी को कुछ और देखने की कामना नहीं करनी चाहिए।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर संस्तुति की गई है कि योगी को चाहिए कि भगवान् की हँसी का भलीभाँति अध्ययन करके उनके अट्टहास का चिन्तन करे। मुसकान, हँसी, मुख, होठ, दाँत के ध्यान के ये विशेष विवरण स्पष्ट रूप से यह इंगित करते हैं कि ईश्वर निराकार नहीं है। यहाँ पर बताया गया है कि मनुष्य को चाहिए कि विष्णु की हँसी का ध्यान करे। इसके अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं जिससे भक्त का हृदय स्वच्छ हो सके। भगवान् विष्णु की हँसी की विशेषता यह है कि जब वे हँसते हैं, तो उनके कुन्दकली जैसे छोटे-छोटे दाँत उनके गुलाबी होठों के प्रतिबिम्ब से लाल-लाल हो जाते हैं। यदि योगी अपने हृदय में भगवान् के सुन्दर मुखमण्डल को बसा सके तो उसे पूर्ण संतोष प्राप्त होगा। दूसरे शब्दों में, जब कोई भगवान् की सुन्दरता को अपने अन्त: में देखता है, तो उसे भौतिक आकर्षण नहीं सताते।
 
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