श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  3.28.34 
एवं हरौ भगवति प्रतिलब्धभावो
भक्त्या द्रवद्‍धृदय उत्पुलक: प्रमोदात् ।
औत्कण्ठ्यबाष्पकलया मुहुरर्द्यमानस्
तच्चापि चित्तबडिशं शनकैर्वियुङ्क्ते ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; हरौ—हरि के प्रति; भगवति—भगवान्; प्रतिलब्ध—विकसित; भाव:—शुद्ध प्रेम; भक्त्या— भक्ति से; द्रवत्—द्रवीभूत हुआ; हृदय:—उसका हृदय; उत्पुलक:—शरीर में रोमांच होना; प्रमोदात्—अत्यधिक प्रसन्नता से; औत्कण्ठ्य—तीव्र प्रेम से; बाष्प-कलया—आँसुओं की धारा से; मुहु:—लगातार; अर्द्यमान:—भीगा; तत्—वह; च—यथा; अपि—भी; चित्त—मन; बडिशम्—वंशी, कँटिया; शनकै:—धीरे-धीरे; वियुङ्क्ते—हटा लेता है ।.
 
अनुवाद
 
 इस मार्ग का अनुसरण करते हुए धीरे-धीरे योगी में भगवान् हरि के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार भक्ति करते हुए अत्यधिक आनन्द के कारण शरीर में रोमांच होने लगता है और गहन प्रेम के कारण शरीर अश्रुओं की धारा से नहा जाता है। यहाँ तक कि धीरे-धीरे वह मन भी भौतिक कर्म से विमुख हो जाता है, जिसे योगी भगवान् को आकृष्ट करने के साधन रूप में प्रयुक्त करता है, जिस प्रकार मछली को आकृष्ट करने के लिये कँटिया प्रयुक्त की जाती है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर यह स्पष्ट बताया गया है कि ध्यान, जो कि मन का कर्म है, समाधि की पूर्णावस्था नहीं है। प्रारम्भ में मन का उपयोग भगवान् के स्वरूप को आकर्षित करने के लिए किया जाता है, किन्तु उच्चतर अवस्थाओं में मन को प्रयोग करने का प्रश्न ही नहीं उठता। भक्त अपनी इन्द्रियों की शुद्धि के द्वारा भगवान् की सेवा करने लगता है। दूसरे शब्दों में, जब तक कोई शुद्ध भक्ति को प्राप्त कर नहीं लेता तभी तक योग के ध्यान की आवश्यकता पड़ती है। मन का उपयोग इन्द्रियों को शुद्ध करने में किया जाता है, किन्तु जब ध्यान द्वारा इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं, तो किसी स्थान पर बैठकर भगवान् के स्वरूप का ध्यान करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। मनुष्य इतना अभ्यस्त हो जाता है कि वह स्वत: ही भगवान् की सेवा में लग जाता है। जब मन को बलपूर्वक ईश्वर के स्वरूप में लगाया जाता है, जो यह निर्बीज योग अर्थात् प्राणहीन योग कहलाता है, क्योंकि योगी स्वत: भगवद्भक्ति में नहीं लगता। किन्तु जब वह निरन्तर भगवान् का चिन्तन करता होता है, तो यह सबीज योग या जीवित योग कहलाता है। मनुष्य को इसी सबीज योग तक पहुँचना होता है।

जैसाकि ब्रह्म-संहिता में बतलाया गया है, मनुष्य को चौबीसों घंटे भगवान् की सेवा में लगे रहना चाहिए। प्रेमाञ्जनच्छुरित अवस्था पूर्ण प्रेम उत्पन्न करके ही प्राप्त की जा सकती है। जब भक्ति में भगवान् के लिए पूरी तरह से प्रेम उत्पन्न हो जाता है, तो वह उनके स्वरूप पर कृत्रिम रूप से ध्यान किये बिना ही भगवान् का दर्शन कर सकता है। उसकी दृष्टि दिव्य रहती है, क्योंकि उसके पास कोई कार्य नहीं रहता। आत्म-साक्षात्कार की इस अवस्था पर मन को कृत्रिम रूप से लगाने की आवश्यकता नहीं रह जाती। चूँकि निम्न अवस्थाओं में ध्यान की संस्तुति भक्ति पद तक पहुँचने के लिए की जाती है, अत: जो पहले से भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगे हैं, वे ऐसे ध्यान से ऊपर हैं। यह पूर्णता की अवस्था कृष्णचेतना (भक्ति) कहलाती है।

 
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