यथा—जिस प्रकार; पुत्रात्—पुत्र से; च—तथा; वित्तात्—सम्पत्ति से; च—भी; पृथक्—भिन्न रूप से; मर्त्य:— नाशवान पुरुष; प्रतीयते—समझा जाता है; अपि—ही; आत्मत्वेन—स्वभाव से; अभिमतात्—प्रिय से; देह-आदे:— अपने भौतिक शरीर, इन्द्रियों तथा मन से; पुरुष:—मुक्त जीव; तथा—उसी तरह ।.
अनुवाद
परिवार तथा सम्पत्ति के प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण मनुष्य पुत्र तथा सम्पत्ति को अपना मानने लगता है और भौतिक शरीर के प्रति स्नेह होने से वह सोचता है कि यह मेरा है। किन्तु वास्तव में जिस तरह मनुष्य समझ सकता है कि उसका परिवार तथा उसकी सम्पत्ति उससे पृथक् हैं, उसी तरह मुक्त आत्मा समझ सकता है कि वह तथा उसका शरीर एक नहीं हैं।
तात्पर्य
इस श्लोक में वास्तविक ज्ञान की अवस्था बताई गई है। बच्चे तो अनेक हैं, किन्तु कुछ को हम अपने स्नेह के कारण अपने पुत्र-पुत्री रूप में स्वीकार करते हैं, यद्यपि हम यह भलीभाँति जानते हैं कि ये बच्चे हमसे पृथक् हैं। इसी प्रकार धन के लिए अत्यधिक स्नेह होने के कारण बैंक में जमा सम्पत्ति को हम अपनी मानते हैं। इसी प्रकार हम कहते हैं कि यह शरीर हमारा है, क्योंकि इसके प्रति हमें स्नेह है। हम कहते हैं कि यह ‘मेरा’ शरीर है। फिर हम अपने स्वामित्व भाव को बढ़ाते हुए कहते हैं, “यह मेरा हाथ है, यह मेरा पाँव है। यह मेरी बैंक-बचत है, यह मेरा पुत्र, मेरी पुत्री है आदि आदि।” किन्तु वास्तव में हम जानते हैं कि पुत्र तथा सम्पत्ति हमसे भिन्न हैं। यही हाल इस शरीर का है, हम अपने शरीर से पृथक् हैं। यह समझने (बोध) का प्रश्न है और सही-सही समझना ही प्रतिबुद्ध कहलाता है। भक्ति या कृष्णचेतना के विषय में ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य मुक्त बन सकता है।
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