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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.28.4 
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रह: ।
ब्रह्मचर्यं तप: शौचं स्वाध्याय: पुरुषार्चनम् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
अहिंसा—अहिंसा; सत्यम्—सत्यनिष्ठा; अस्तेयम्—चोरी न करना; यावत्-अर्थ—आवश्यकतानुसार; परिग्रह:— संग्रह; ब्रह्मचर्यम्—ब्रह्मचर्य व्रत; तप:—तपस्या; शौचम्—स्वच्छता; स्व-अध्याय:—वेदों का अध्ययन; पुरुष- अर्चनम्—भगवान् की पूजा ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को चाहिए कि अहिंसा तथा सत्य का आचरण करे, चोरी से बचे और अपने निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही संग्रह करे। वह विषयी जीवन से बचे, तपस्या करे, स्वच्छ रहे, वेदों का अध्ययन करे और भगवान् के परमस्वरूप की पूजा करे।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में पुरुषार्चनम् शब्द का अर्थ है भगवान् की पूजा करना, विशेष रूप से भगवान् कृष्ण के स्वरूप की। भगवद्गीता में अर्जुन ने पुष्टि की है कि कृष्ण ही मूल पुरुष—पुरुषम् शाश्वतम्—हैं। इसलिए योगाभ्यास करते समय मनुष्य को अपना मन न केवल कृष्ण के स्वरूप में केन्द्रित करना चाहिए, अपितु कृष्ण के विग्रह या स्वरूप की नित्य पूजा भी करनी चाहिए।

ब्रह्मचारी विषयी जीवन पर नियन्त्रण रखता है और ब्रह्मचर्य का अभ्यास करता है। अनियन्त्रित विषयी जीवन बिताते हुए मनुष्य योग का अभ्यास नहीं कर सकता। यह तो धूर्तता है। तथाकथित योगी यह विज्ञापित करते हैं कि वे इच्छानुसार भोग करने के साथ ही साथ योगी भी बने रह सकते हैं, किन्तु यह सर्वथा अप्रामाणिक है। यहाँ स्पष्ट बताया गया है कि मनुष्य को ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए। ब्रह्मचर्यम् का अर्थ है मनुष्य ब्रह्म के साथ सम्बन्ध में या कृष्णभक्ति में ही जीवन बिताता है। लोग विषयी जीवन में अनुरक्त रहते हैं, वे उन विधानों का पालन नहीं करते जो उन्हें कृष्णभावनामृत की ओर अग्रसर कर सके। विषयी जीवन तो विवाहितों तक ही सीमित रहना चाहिए। जो व्यक्ति विवाह के बाद सीमित विषयी जीवन बिताता है, वह भी ब्रह्मचारी कहलाता है।

योगी के लिए अस्तेयम् शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है “चोरी न करना।” व्यापक अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति, जो आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है, चोर है। आध्यात्मिक साम्यवाद के अनुसार कोई अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता से अधिक नहीं रख सकता। यही प्रकृति का नियम है। जो व्यक्ति आवश्यकता से अधिक धन या सम्पत्ति एकत्र करता है, वह चोर है और जो यज्ञ अथवा श्रीभगवान् की पूजा में व्यय किये बिना धन का केवल संग्रह करता जाता है, वह और भी बड़ा चोर है।

स्वाध्याय: का अर्थ “प्रामाणिक वैदिक शास्त्रों का अध्ययन”है। यदि कोई कृष्ण का भक्त नहीं होता और योग-पद्धति का अभ्यास करता है, तो उसे चाहिए कि ज्ञान के लिए आदर्श वैदिक साहित्य पढ़े। केवल योग सम्पन्न करना पर्याप्त नहीं है। परम भक्त तथा गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं कि सारे आध्यात्मिक कार्यकलाप तीन साधनों से जाने जाते हैं—साधु पुरुष, आदर्श शास्त्र तथा गुरु से। आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए ये तीनों अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक हैं। भक्तियोग के सम्पादन हेतु गुरु आदर्श साहित्य की संस्तुति करता है और वह स्वयं शास्त्रों के उद्धरण देता हुआ बोलता है। अत: योग साधने के लिए आदर्श शास्त्रों को पढऩा अनिवार्य है। आदर्श साहित्य पढ़े बिना योगाभ्यास समय का अपव्यय मात्र है।

 
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