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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  3.28.40 
यथोल्मुकाद्विस्फुलिङ्गाद्धूमाद्वापि स्वसम्भवात् ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद्यथाग्नि: पृथगुल्मुकात् ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस प्रकार; उल्मुकात्—लौ से; विस्फुलिङ्गात्—चिनगारियों से; धूमात्—धुएँ से; वा—अथवा; अपि—भी; स्व-सम्भवात्—अपने आप से उद्भूत; अपि—यद्यपि; आत्मत्वेन—प्रकृति (स्वभाव) से; अभिमतात्— घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित; यथा—जिस प्रकार; अग्नि:—अग्नि; पृथक्—भिन्न; उल्मुकात्—लौ से ।.
 
अनुवाद
 
 प्रज्वलित अग्नि ज्वाला से, चिनगारी से तथा धुएँ से भिन्न है, यद्यपि ये सभी उससे घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होते हैं, क्योकि वे एक ही प्रज्ज्वलित काष्ठ से उत्पन्न होते हैं।
 
तात्पर्य
 यद्यपि प्रज्ज्वलित काष्ठ, चिनगारियाँ, धुआँ तथा लौ (लपट) पृथक्-पृथक् नहीं रह सकते, क्योंकि प्रत्येक अग्नि का अंशरूप है फिर भी वे एक दूसरे से पृथक् हैं। अल्पज्ञ धुएँ को अग्नि मान लेता है, यद्यपि अग्नि तथा धुआँ सर्वथा पृथक् हैं। अग्नि की उष्मा तथा प्रकाश पृथक्-पृथक् हैं, भले ही कोई इनको अलग नहीं कर सकता है।
 
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