परब्रह्म कहलाने वाला भगवान् द्रष्टा है। वह जीवात्मा या जीव से भिन्न है, जो इन्द्रियों, पंचतत्त्वों तथा चेतना से संयुक्त है।
तात्पर्य
यहाँ पर पूर्णब्रह्म की स्पष्ट अवधारणा प्रस्तुत की गई है। जीवात्मा भौतिक तत्त्वों से भिन्न है और परम पुरुष या भगवान् जो भौतिक तत्त्वों के स्रष्टा हैं, प्रत्येक जीवात्मा से भिन्न हैं। भगवान् चैतन्य ने इस अवधारणा को अचिन्त्य-भेदाभेद-तत्त्व के रूप में स्थापित किया है। प्रत्येक वस्तु अन्य किसी वस्तु से एक ही समय अभिन्न और भिन्न होती है। परमेश्वर की भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न यह दृश्य जगत भी उनसे अभिन्न तथा साथ ही भिन्न भी है। भौतिक शक्ति परमेश्वर से अभिन्न है, किन्तु साथ ही भिन्न प्रकार से कार्यशील होने के कारण यह शक्ति परमेश्वर से भिन्न है। इसी प्रकार प्रत्येक जीवात्मा परमेश्वर से अभिन्न तथा भिन्न है। यह “एक ही समय अभिन्न तथा भिन्न” की अवधारणा भागवत मत का सही-सही निष्कर्ष है, जिसकी पुष्टि यहाँ पर कपिलदेव द्वारा हुई है।
जीवों की तुलना अग्नि की चिनगारियों से की गई है। जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है, अग्नि, लौ, धुँआ तथा काष्ठ सभी मिले हुए हैं। यहाँ पर जीवात्मा भौतिक तत्त्व तथा परमात्मा परस्पर मिले हुए हैं। जीवों की स्थिति अग्नि की चिनगारियों जैसी ही है, भौतिक शक्ति की तुलना धुएँ से की गई है। अग्नि भी परमेश्वर का अंश है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि हम भौतिक या आध्यात्मिक जगत में जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं वह परमेश्वर की विभिन्न शक्तियों का ही विस्तार है। जिस प्रकार अग्नि एक स्थान में रहकर उष्मा तथा प्रकाश वितरित करती है उसी प्रकार भगवान् अपनी विभिन्न शक्तियों को सम्पूर्ण सृष्टि भर में वितरित करते हैं।
वैष्णव दर्शन के चार सिद्धान्त हैं—शुद्ध-अद्वैत, द्वैत-अद्वैत, विशिष्ट-अद्वैत तथा द्वैत। वैष्णव दर्शन के ये चारों सिद्धान्त भागवत के इन दो श्लोकों में कथित अधिकारों (दावों) पर आधारित हैं।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.