यह समझ लेना होगा कि शरीर को उपाधि दी जाती है। भौतिक प्रकृति के तीन गुणों की अन्त:क्रिया प्रकृति है और इन गुणों के अनुसार किसी को छोटा शरीर मिलता है, तो किसी को बड़ा। उदाहरणार्थ, काष्ठ के बड़े खण्ड में अग्नि बड़ी प्रतीत होती है और एक छड़ी में छोटी लगती है। वस्तुत: अग्नि की गुणता सर्वत्र एक रहती है, किन्तु भौतिक प्रकृति का प्राकट्य ऐसा है कि ईंधन के अनुसार अग्नि छोटी या बड़ी प्रतीत होती है। इसी प्रकार विराट शरीर का आत्मा एक-से गुण वाला होते हुए भी लघु शरीर के आत्मा की अपेक्षा भिन्न होता है। आत्मा के लघुकण विशाल आत्मा की चिनगारियों के समान हैं। सबसे महान् आत्मा तो परमात्मा है, किन्तु यह परम आत्मा लघु आत्मा से गुण में भिन्न है। वैदिक साहित्य में परमात्मा को लघु आत्मा की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला कहा गया है (नित्यो नित्यानाम्)। जो कोई परमात्मा तथा व्यष्टि आत्मा के इस अन्तर को समझता है, वह शोकरहित है और शान्तिपूर्वक रहता है। जब लघु आत्मा अपने को विशाल आत्मा के तुल्य सोचता है, तो वह माया के वश में होता है, क्योंकि यह उसकी स्वाभाविक स्थिति नहीं है। मात्र कल्पना से कोई विशाल आत्मा नहीं बन सकता।
वराह पुराण में विभिन्न आत्माओं की लघुता या विशालता का वर्णन स्वांश विभिन्नांश के रूप में पाया जाता है। स्वांश आत्मा भगवान् है और विभिन्नांश आत्माएँ या लघुकण शाश्वत रूप से लघु कण ही रहते हैं जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि हुई है (ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:)। लघु जीव शाश्वत अंश हैं, अत: वे कभी परमात्मा के समान नहीं हो सकते।