मौनम्—मौन, मूकता; सत्—अच्छा; आसन—योग के आसन; जय:—वश में करते हुए; स्थैर्यम्—स्थिरता; प्राण जय:—प्राणवायु को साधना; शनै:—धीरे-धीरे; प्रत्याहार:—निकालना; च—तथा; इन्द्रियाणाम्—इन्द्रियों का; विषयात्—विषयों से; मनसा—मन से; हृदि—हृदय में ।.
अनुवाद
मनुष्य को इन विधियों अथवा अन्य किसी सही विधि से अपने दूषित तथा चंचल मन को वश में करना चाहिए, जिसे भौतिक भोग के द्वारा सदैव आकृष्ट किया जाता रहता है और इस तरह अपने आप को भगवान् के चिन्तन में स्थिर करना चाहिए।
तात्पर्य
सामान्य रूप से योगाभ्यास तथा विशेष रूप से ‘हठयोग’ स्वयं में अभीष्ट नहीं होते, ये स्थिरता प्राप्त करने की दिशा में साधनस्वरूप हैं। सर्वप्रथम मनुष्य को ठीक से आसन लगाने में सक्षम होना चाहिए। तभी योगाभ्यास के लिए मन तथा ध्यान स्थिर हो सकेंगे। धीरे धीरे मनुष्य को प्राणवायु के आवागमन को नियन्त्रित करना चाहिए। इस तरह वह इन्द्रियों को विषयों से दूर खींच सकेगा। पिछले श्लोक में कहा गया है कि मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। इन्द्रियनिग्रह का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू विषयी जीवन पर नियन्त्रण है। यह ब्रह्मचर्य कहलाता है। विभिन्न आसनों के अभ्यास तथा प्राणवायु के नियन्त्रण द्वारा असीमित इन्द्रियभोग से इन्द्रियों का निरोध किया जा सकता है।
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