स्वधिष्ण्यानामेकदेशे मनसा प्राणधारणम् ।
वैकुण्ठलीलाभिध्यानं समाधानं तथात्मन: ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
स्व-धिष्ण्यानाम्—प्राणचक्रों के भीतर; एक-देशे—एक स्थान में; मनसा—मन से; प्राण—प्राणवायु; धारणम्— स्थिर करना; वैकुण्ठ-लीला—श्रीभगवान् की लीलाओं में; अभिध्यानम्—ध्यान; समाधानम्—समाधि; तथा—इस तरह; आत्मन:—मन की ।.
अनुवाद
शरीर के भीतर के षटचक्रों में से किसी एक में प्राण तथा मन को स्थिर करना और इस प्रकार से अपने मन को भगवान् की दिव्य लीलाओं में केन्द्रित करना समाधि या मन का समाधान कहलाता है।
तात्पर्य
शरीर के भीतर प्राणवायु के आवागमन के छ: चक्र हैं। पहला चक्र उदर के नीचे, दूसरा हृदय-प्रदेश में, तीसरा फेफड़ों के पास, चौथा तालू में, पाँचवाँ भौंहों के बीच में तथा सर्वोच्च छठा चक्र मस्तिष्क के ऊपर है। मनुष्य को अपने मन तथा प्राणवायु के आवागमन को स्थिर करके भगवान् की दिव्य लीलाओं का चिन्तन करना होता है। इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है कि मनुष्य अपने को निराकार या शून्य में केन्द्रित करे। स्पष्ट उल्लेख है—वैकुण्ठ-लीला। जब तक परम सत्य श्रीभगवान् की लीलाएँ दिव्य न हों तब तक उनके विषय में चिन्तन के लिए गुंजाईश कहाँ? भगवान् की भक्ति, कीर्तन तथा लीलाओं के श्रवण के द्वारा ही यह ध्यान (एकाग्रता) प्राप्त किया जा सकता है। श्रीमद्भागवत में वर्णन आया है कि भगवान् विभिन्न भक्तों के साथ अपने सम्बन्धों के अनुसार प्रकट और अन्तर्धान होते रहते हैं। वैदिक साहित्य में भगवान् की लीलाओं की अनेक कथाएँ पाई जाती हैं जिनमें कुरुक्षेत्र का युद्ध तथा भक्तों—यथा प्रह्लाद महाराज, ध्रुव महाराज तथा अम्बरीष महाराज—के जीवन तथा उपदेश सम्बन्धी ऐतिहासिक तथ्य सम्मिलित हैं। मनुष्य को इनमें से किसी कथा में अपने मन को केन्द्रित करने और इसके विचार में तल्लीन रहने की आवश्यकता होती है। तब वह समाधि में पहुँच जाता है। समाधि कोई कृत्रिम शारीरिक अवस्था नहीं, यह वह अवस्था है, जो मन द्वारा श्रीभगवान् के विचारों में तल्लीन हो जाने पर प्राप्त होती है।
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