श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 28: भक्ति साधना के लिए कपिल के आदेश  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  3.28.8 
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासन आसनम् ।
तस्मिन्स्वस्ति समासीन ऋजुकाय: समभ्यसेत् ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
शुचौ देशे—पवित्र स्थान में; प्रतिष्ठाप्य—स्थापित करके; विजित-आसन:—आसनों को वश में करते हुए; आसनम्—आसन, स्थान; तस्मिन्—उस स्थान में; स्वस्ति समासीन:—आरामदेह आसन में बैठे हुए; ऋजु-काय:— शरीर को सीधा रखते हुए; समभ्यसेत्—अभ्यास करना चाहिए ।.
 
अनुवाद
 
 अपने मन तथा आसनों को वश में करने के बाद मनुष्य को चाहिए कि किसी एकान्त तथा पवित्र स्थान में अपना आसन बिछा दे, उस पर शरीर को सीधा रखते हुए सुखपूर्वक आसीन होकर श्वास नियन्त्रण (प्राणायाम) का अभ्यास करे।
 
तात्पर्य
 सुखपूर्वक आसीन होने को स्वस्ति समासीन: कहते हैं। योगशास्त्र में संस्तुति है कि दोनों जाँघों तथा घुटनों के बीच पाँव के तलवे रख कर सीधा बैठा जाय, इस आसन से भगवान् में मन को केन्द्रित करने में सुविधा होगी। भगवद्गीता के छठे अध्याय में इसी विधि की संस्तुति की गई है। यह भी सुझाव दिया गया है कि मनुष्य को चाहिए कि वह किसी एकान्त पवित्र स्थान में बैठे। उसका आसन मृगछाला तथा कुश का हो जिसके ऊपर सूती वस्त्र हो।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥