श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  3.29.10 
कर्मनिर्हारमुद्दिश्य परस्मिन्वा तदर्पणम् ।
यजेद्यष्टव्यमिति वा पृथग्भाव: स सात्त्विक: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
कर्म—सकाम कर्म; निर्हारम्—अपने आपको मुक्त करने के; उद्दिश्य—उद्देश्य से; परस्मिन्—भगवान् को; वा— अथवा; तत्-अर्पणम्—कर्मफल का अर्पण; यजेत्—पूजा करे; यष्टव्यम्—पूजे जाने के लिए; इति—इस प्रकार; वा—अथवा; पृथक्-भाव:—पृथकतावादी; स:—वह; सात्त्विक:—सतोगुण में स्थित ।.
 
अनुवाद
 
 जब भक्त भगवान् की पूजा करता है और अपने कर्मों की त्रुटि से मुक्त होने के लिए अपने कर्मफलों को अर्पित करता है, तो उसकी भक्ति सात्त्विक होती है।
 
तात्पर्य
 ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ये चार वर्ण तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी ये चार आश्रम—इन आठों विभागों के अपने-अपने कर्म हैं, जिन्हें भगवान् को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न करना होता है। जब ऐसे कार्यों को सम्पन्न करके इनके फलों को परमेश्वर को अर्पित कर दिया जाता है, तो वे कर्मार्पणम् कहलाते हैं। यदि कोई त्रुटि रह जाती है, तो इस अर्पण से वह पूरी हो जाती है। किन्तु यदि यह अर्पण शुद्ध भक्ति में न होकर सतोगुण में हो तो स्वार्थ भिन्न हो जाता है। चारों आश्रम तथा चारों वर्ण अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के अनुसार किसी न किसी लाभ के लिए कर्म करते हैं। अत: ऐसे कर्म सतोगुण में होते हैं, इनकी गणना शुद्ध भक्ति की श्रेणी में नहीं की जा सकती। जैसाकि रूप गोस्वामी ने कहा है : शुद्ध भक्ति समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित होती है। अन्याभिलाषिता शून्यम्। व्यक्तिगत या भौतिक स्वार्थ के लिए यह बहाना नहीं हो सकता। भक्ति सम्बन्धी कर्मों को सकाम कर्मों तथा यादृच्छिक (अनुभववादी) दार्शनिक चिन्तन से परे होना चाहिए। शुद्ध भक्ति समस्त भौतिक गुणों से परे होती है।

तमो, रजो तथा सतोगुण के अधीन भक्ति को ८१ श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। भक्ति सम्बन्धी कार्यों को नौ प्रकारों में विभाजित किया जाता है—श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, अर्चन, सेवा तथा समर्पण और इनको पुन: तीन-तीन गुणात्मक श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। इस प्रकार श्रवण के तमो, रजो तथा सतोगुण के अधीन विभाग हो सकते हैं। इसी प्रकार गुणों के भी तीन विभाग हैं। तीन गुणित नौ बराबर सत्ताईस और जब फिर इसे तीन से गुणा करते हैं, तो इक्यासी आता है। मनुष्य को शुद्ध भक्ति के स्तर तक पहुँचने के लिए ऐसी समस्त मिश्रित भक्ति को पार कर जाना होता है जैसाकि अगले श्लोकों में बताया गया है।

 
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