सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जना: ॥ १३ ॥
शब्दार्थ
सालोक्य—समान लोक में निवास; सार्ष्टि—समान ऐश्वर्य वाला; सामीप्य—व्यक्तिगत पार्षद होना; सारूप्य—समान शारीरिक रूप वाला; एकत्वम्—तादात्म्य; अपि—भी; उत—यहाँ तक कि; दीयमानम्—प्रदान किये जाने पर; न— नहीं; गृह्णन्ति—स्वीकार करते हैं; विना—रहित; मत्—मेरी; सेवनम्—भक्ति; जना:—शुद्ध भक्त ।.
अनुवाद
शुद्ध भक्त सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य या एकत्व में से किसी प्रकार का मोक्ष स्वीकार नहीं करते, भले ही ये भगवान् द्वारा क्यों न दिये जा रहे हों।
तात्पर्य
भगवान् चैतन्य हमें शिक्षा देते हैं कि किस प्रकार भगवान् के प्रति स्वत:स्फूर्त प्रेम के साथ भक्ति करनी चाहिए। शिक्षाष्टक में वे भगवान् से प्रार्थना करते हैं, “हे प्रभु! मैं आपसे न तो कोई सम्पत्ति चाहता हूँ, न ही मैं सुन्दर पत्नी चाहता हूँ और न अनेक अनुयायी चाहता हूँ। मैं आपसे इतना ही चाहता हूँ कि जन्म-जन्मान्तर आपके चरणकमलों का शुद्ध भक्त बना ही रहूँ।” भगवान् चैतन्य की स्तुतियों एवं श्रीमद्भागवत के कथनों में साम्य है। चैतन्य महाप्रभु प्रार्थना करते हैं “जन्म-जन्मान्तर” जो इस बात का सूचक है कि शुद्ध भक्त जन्म तथा मृत्यु की समाप्ति भी नहीं चाहता। योगी तथा यादृच्छिक दार्शनिक जन्म तथा मृत्यु की प्रक्रिया का अन्त चाहते हैं, किन्तु शुद्ध भक्त तो इस भौतिक जगत में रहकर भक्ति करना चाहता है। यहाँ स्पष्ट उल्लेख है कि शुद्ध भक्त एकत्व अर्थात् भगवान् से तदाकार नहीं चाहता जैसाकि निर्विशेषवादी, मन:चिन्तक तथा ध्यानकर्ता कामना करते रहते हैं। परमेश्वर के साथ एक होना शुद्ध भक्त को स्वप्न में भी नहीं सूझता। कभी-कभी वह भगवान् की सेवा करने के उद्देश्य से वैकुण्ठलोक जाना स्वीकार कर लेता है, किन्तु वह ब्रह्मतेज में लीन होने का मन में विचार तक नहीं लाता, क्योंकि इसे वह नरक से भी निकृष्ट मानता है। ऐसे एकत्व अर्थात् ब्रह्मतेज में लीन होने को कैवल्य कहते हैं, किन्तु कैवल्य से प्राप्त सुख शुद्ध भक्त के लिए नारकीय है। भक्त भगवान् की सेवा करने के लिए इतना इच्छुक रहता है कि उसके लिए पाँचों प्रकार के मोक्ष कोई महत्त्व नहीं रखते। यदि कोई भगवान् की शुद्ध प्रेमा-भक्ति में संलग्न है, तो यह माना जाता है कि उसने पाँचों प्रकार के मोक्ष पहले ही प्राप्त कर लिए हैं।
जब भक्त वैकुण्ठलोक जाता है, तो उसे चार प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। इनमें से एक है सालोक्य अर्थात् भगवान् के ही लोक में वास करना। भगवान् अपने विभिन्न पूर्ण-अंशों में असंख्य वैकुण्ठलोकों में निवास करते हैं जिनमें कृष्णलोक प्रमुख है। जिस प्रकार भौतिक ब्रह्माण्ड के भीतर सूर्यलोक मुख्य लोक है उसी तरह वैकुण्ठलोकों में कृष्णलोक प्रमुख है। कृष्णलोक से भगवान् कृष्ण का शारीरिक तेज दिव्यलोक तथा भौतिक जगत में फैलता है, किन्तु भौतिक जगत में यह पदार्थ से ढका रहता है। दिव्यलोक में असंख्य वैकुण्ठलोक हैं और इनमें से प्रत्येक के अधिष्ठाता देव भी भगवान् ही हैं। भक्त को वैकुण्ठ में भगवान् के साथ रहने के लिए भेज दिया जाता है।
सार्ष्टि मोक्ष में भक्त का ऐश्वर्य भगवान् के ऐश्वर्य के तुल्य होता है। सामीप्य का अर्थ है भगवान् का साक्षात् पार्षद होना। सारूप्य मोक्ष में भक्त का स्वरूप केवल दो-तीन लक्षणों को छोडक़र भगवान् जैसा ही होता है। उदाहरणार्थ, श्रीवत्स के द्वारा भगवान् अपने भक्त से पृथक् हैं।
शुद्ध भक्त इन पाँच प्रकार के मोक्षों को प्रदान किये जाने पर भी स्वीकार नहीं करता। वह भौतिक लाभों की कामना नहीं करता, क्योंकि आध्यात्मिक लाभों की तुलना में ये नगण्य होते हैं। जब प्रह्लाद महाराज को भौतिक लाभ प्रदान किया जा रहा था, तो वे बोले, “हे प्रभु! मैं देख चुका हूँ कि मेरे पिता को सभी प्रकार के भौतिक लाभ प्राप्त थे, यहाँ तक कि देवता भी उनके ऐश्वर्य से भयभीत रहते थे, फिर भी आपने एक क्षण में उनके जीवन का तथा उनकी सारी सम्पन्नता का अन्त कर दिया।” भक्त के लिए भौतिक या आध्यात्मिक सम्पन्नता कोई महत्त्व नहीं रखती। उसकी एकमात्र आकांक्षा भगवान् की सेवा करने की होती है। यही सर्वोच्च सुख है।
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