निर्विशेषवादी चिन्तकों के अग्रणी माने जाने वाले श्रीपाद शंकराचार्य ने भगवद्गीता की अपनी टीका के प्रारम्भ में स्वीकार किया कि भगवान् नारायण भौतिक सृष्टि से परे हैं; उन्हें छोडक़र प्रत्येक वस्तु भौतिक सृष्टि के भीतर है। वैदिक साहित्य में भी इसी की पुष्टि हुई है कि सृष्टि के पूर्व केवल नारायण थे—तब न तो ब्रह्मा थे, न शिव। केवल नारायण, या पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु या कृष्ण सदैव भौतिक सृष्टि के प्रभाव के परे दिव्य पद में रहते हैं। भगवान् की स्थिति को सतो, रजो तथा तमो गुण प्रभावित नहीं कर पाते इसीलिए वे निर्गुण (भौतिक गुणों के सभी प्रभावों से मुक्त) कहलाते हैं। यहाँ पर इसी तथ्य की पुष्टि भगवान् कपिल द्वारा दी गई है—जो शुद्ध भक्ति में स्थित है, वह भगवान् के ही समान दिव्य पद पर स्थित है। जिस प्रकार भगवान् प्रकृति गुणों के प्रभाव से अप्रभावित रहते हैं उसी तरह उनके शुद्ध भक्त भी हैं। जो प्रकृतिक के तीन गुणों से प्रभावित नहीं होता वह मुक्त जीव या ‘ब्रह्मभूत’ कहलाता है। ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा मुक्ति की अवस्था है। अहं ब्रह्मास्मि—“मैं यह शरीर नहीं हूँ”—यह कथन उस व्यक्ति पर लागू होता है, जो निरन्तर कृष्ण की भक्ति में लगा रहता है और इस तरह दिव्य अवस्था में रहता है। वह प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाव से ऊपर रहता है।
यह तो निर्विशेषवादियों की भ्रान्त धारणा है कि मनुष्य ईश्वर या ब्रह्मा के किसी काल्पनिक रूप की पूजा कर सकता है और अन्त में ब्रह्मतेज में लीन हो जाता है। निस्सन्देह, परमेश्वर के शारीरिक (ब्रह्म) तेज में लीन होना भी मोक्ष है, जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है। एकत्व भी मोक्ष है, किन्तु कोई भी भक्त इस प्रकार के मोक्ष को अंगीकार नहीं करता, क्योंकि ज्योंही कोई भक्ति में स्थित होता है उसे तुरन्त एकात्म प्राप्त हो जाता है। भक्त के लिए ऐसा एकात्म, जो निर्गुण मोक्ष का प्रतिफल है, पहले से प्राप्त रहता है, उसे इसके लिए अलग से प्रयत्न नहीं करना होता। यहाँ पर स्पष्ट कहा गया है कि शुद्ध भक्ति से ही मनुष्य भगवान् के समान हो जाता है।