मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्णों के अनुसार अपने नियत कर्म करने होते हैं। भगवद्गीता में भी मानव समाज के चार विभिन्न वर्णों के नियत कर्मों का वर्णन हुआ है। ब्राह्मणों के कर्म हैं इन्द्रियों को वश में करना तथा सरल, स्वच्छ एवं विद्वान भक्त बनना। क्षत्रियों में शासन की प्रवृत्ति होती है, वे युद्ध-भूमि में डरते नहीं और दानशील होते हैं। वैश्य अथवा व्यापारी वर्ग व्यापार करते हैं, गायों की रक्षा करते हैं और कृषि उपज में विकास करते रहते हैं। शूद्र अथवा श्रमिक वर्ग उच्चतर जातियों की सेवा करते हैं, क्योंकि वे स्वयं अधिक बुद्धिमान नहीं होते। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि हुई है—स्वकर्मणा तम् अभ्यर्च्य—हर अवस्था में मनुष्य अपने-अपने नियत कर्म करता हुआ भगवान् की सेवा कर सकता है। ऐसा नहीं है कि केवल ब्राह्मण ही परमेश्वर की सेवा कर सकता है और शूद्र नहीं। कोई भी अपने गुरु अथवा भगवान् के प्रतिनिधि के निर्देशन में अपने-अपने निर्धारित कर्मों को करता हुआ भगवान् की सेवा कर सकता है। किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि उसके कर्म निम्न हैं। ब्राह्मण अपनी बुद्धि के प्रयोग से तथा क्षत्रिय अपनी सैन्य चातुरी से भगवान् की सेवा कर सकता है जैसी कि अर्जुन ने कृष्ण की सेवा की। अर्जुन योद्धा था, उसके पास वेदान्त या कोई बौद्धिक ग्रंथ पढऩे के लिए समय नहीं था। व्रजधाम की अंगनाएँ वैश्य जाति में उत्पन्न थीं और वे गायों की रक्षा तथा कृषि-कर्म में लगी रहती थीं। कृष्ण के धर्मपिता नन्द महाराज तथा उनके सहकर्मी सभी वैश्य थे। वे थोड़े भी शिक्षित नहीं थे, किन्तु वे कृष्ण को प्रेम द्वारा तथा प्रत्येक वस्तु उन्हें ही अर्पित करके उनकी सेवा करते थे। इसी प्रकार ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ चण्डाल तक कृष्ण की सेवा करते थे। यही नहीं, विदुर मुनि भी शूद्र समझे जाते थे, क्योंकि इनकी माँ शूद्र थीं। किन्तु उनमें कोई अन्तर नहीं माना जाता था, क्योंकि भगवद्गीता में भगवान् की घोषणा है कि जो कोई भी भक्ति में लगा रहता है, वह नि:संशय दिव्य पद को प्राप्त होता है। हर एक व्यक्ति का कर्म महत्त्वपूर्ण है यदि वह निष्काम भाव से भगवान् की भक्ति के लिए किया जाय। ऐसी प्रेमा-भक्ति अकारण, निबीध तथा इच्छानुसार सम्पन्न होनी चाहिए। कृष्ण प्रेय हैं और हर एक को उनकी सेवा करनी चाहिए। यही शुद्ध भक्ति है।
इस श्लोक का अन्य महत्त्वपूर्ण पद है नातिहिंस्रेण (कम से कम हिंसा या जीवन की बलि करते हुए)। यदि भक्त को हिंसा का सहारा लेना ही पड़े तो आवश्यकता से अधिक नहीं होनी चाहिए। कभी-कभी हमसे यह प्रश्न पूछा जाता है, “आप मांस न खाने की बात करते हैं, किन्तु आप शाक खाते हैं। क्या यह हिंसा नहीं है?” इसका उत्तर यह है कि शाकाहार हिंसा है और शाकाहारी भी अन्य जीवों की हिंसा कर रहे हैं, क्योंकि शाक में भी जीवन है। अभक्त लोग भोजन के लिए गाएँ, बकरे तथा न जाने कितने पशुओं को मार रहे हैं और एक शाकाहारी भक्त भी वध करता है। किन्तु यहाँ इसका विशेष रूप से उल्लेख है कि प्रत्येक जीव को जीवित रहने के लिए दूसरे जीवों का वध करना पड़ता है, यह प्रकृति का नियम है। जीवो जीवस्य जीवनम्—एक जीव दूसरे जीव का जीवन है। किन्तु मनुष्य को चाहिए कि जितनी आवश्यक हो उतनी ही हिंसा करे।
मनुष्य को ऐसी कोई वस्तु नहीं खानी चाहिए जो भगवान् को अर्पित न हुई हो। यज्ञ शिष्टाशिन: सन्त:—यज्ञ अर्थात् भगवान् को अर्पित खाद्य पदार्थ खाने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। अत: भक्त केवल प्रसाद अथवा भगवान् को अर्पित भोजन ही ग्रहण करता है और कृष्ण कहते हैं कि जब भक्त उन पर भक्तिपूर्वक वनस्पति जगत से प्राप्त खाद्य सामग्री अर्पित करता है, तो वे उसे खाते हैं। भक्त कृष्ण को वनस्पतियों (शाक) से तैयार किया गया भोजन अर्पित करे। यदि भगवान् पशुओं से तैयार खाद्य सामग्री चाहते होते तो भक्त उसी की भेंट चढ़ाता। किन्तु भगवान् ने ऐसा न करने का आदेश दिया है।
हमें हिंसा करनी ही पड़ती है, यह एक प्राकृतिक नियम है। किन्तु हमें अंधाधुंध हिंसा नहीं करनी चाहिए, केवल उतनी ही करनी चाहिए जितने का भगवान् से आदेश प्राप्त है। अर्जुन वध-कार्य में लगा रहा और यद्यपि वध करना हिंसा है, तो भी उसने कृष्ण की आज्ञा से शत्रुओं का वध किया। इसी प्रकार यदि हम आवश्यकतानुसार भगवान् के आदेश से हिंसा करते हैं, तो वह नातिहिंसा कहलाती है। हम हिंसा से बच नहीं सकते, किन्तु हमें उतनी ही हिंसा करनी चाहिए जितने का आदेश भगवान् से प्राप्त है।