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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  3.29.16 
मद्धिष्ण्यदर्शनस्पर्शपूजास्तुत्यभिवन्दनै: ।
भूतेषु मद्भावनया सत्त्वेनासङ्गमेन च ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
मत्—मेरी; धिष्ण्य—मूर्ति, प्रतिमा; दर्शन—देखना; स्पर्श—छूना; पूजा—पूजा करना; स्तुति—प्रार्थना; अभिवन्दनै:—नमस्कार या वन्दना द्वारा; भूतेषु—समस्त जीवों में; मत्—मेरा; भावनया—विचार से; सत्त्वेन— सतोगुण से; असङ्गमेन—विरक्ति से; —तथा ।.
 
अनुवाद
 
 भक्त को नियमित रूप से मन्दिर में मेरी प्रतिमा का दर्शन करना, मेरे चरणकमल स्पर्श करना तथा पूजन सामग्री एवं प्रार्थना अर्पित करना चाहिए। उसे सात्त्विक भाव से वैराग्य दृष्टि रखनी चाहिए और प्रत्येक जीव को आध्यात्मिक दृष्टि से देखना चाहिए।
 
तात्पर्य
 भक्त के कार्यों में से एक है मन्दिर-पूजा। नवदीक्षितों के लिए इसकी संस्तुति की जाती है, किन्तु जो उन्नत हो चुके हैं, उन्हें मन्दिर-पूजा के प्रति आनाकानी नहीं करनी चाहिए। मन्दिर में भगवान् की उपस्थिति एक नवदीक्षित तथा एक उन्नत भक्त के लिए एकसी नहीं होती। एक नवदीक्षित अर्चाविग्रह (भगवान् की प्रतिमा) को मूल भगवान् से भिन्न मानता है, वह इसे देवता (विग्रह) के रूप में भगवान् का स्वरूप मानता है। किन्तु उन्नत भक्त मन्दिर के विग्रह (देवता) को परमेश्वर करके मानता है। वह भगवान् के मूल रूप तथा मन्दिर के भगवान् के अर्चाविग्रह या प्रतिमा में कोई अन्तर नहीं देखता। यह उस भक्त की दृष्टि है, जिसकी भक्ति ‘भाव’ अथवा भगवद्प्रेम की सर्वोच्च अवस्था में होती है, जबकि नवदीक्षित के लिए मन्दिर पूजा एक नैत्यिक कर्म के रूप में होती है।

मन्दिर में विग्रह-पूजा भक्त के कर्मों में से है। वह नियमित रूप से सुन्दर ढंग से सज्जित विग्रह का दर्शन करने जाता है और अत्यन्त आदर के साथ भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श करके, फल, फूल तथा स्तुति जैसी पूजा की भेंट चढ़ाता है। साथ ही, भक्त को चाहिए कि भक्ति में अग्रसर होने के लिए वह अन्य जीवों को आध्यात्मिक स्फुलिंग या परमेश्वर के अंश रूप में देखे। भक्त को प्रत्येक जीव का आदर करना चाहिए, क्योंकि वह भगवान् से सम्बन्धित है। चूँकि सभी जीव मूलत: भगवान् के अंश होने के कारण उनसे सम्बन्धित हैं, अत: भक्त को चाहिए कि उन्हें समान आध्यात्मिक स्तर पर समझे। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, पंडित की दृष्टि में एक विद्वान ब्राह्मण, शूद्र, शूकर, कुत्ता तथा गाय एक समान होते हैं। वह उनके शरीर को नहीं देखता, क्योंकि शरीर तो बाह्य वस्त्र के समान है। वह ब्राह्मण या गाय या शूकर के वेश को नहीं देखता। वह तो उस आध्यात्मिक स्फुलिंग को देखता है, जो भगवान् का अंश-रूप है। यदि भक्त प्रत्येक जीव को भगवान् के अंश-रूप में नहीं देखता तो वह प्रकृति-भक्त कहलाता है। वह पूर्णतया आध्यात्मिक पद पर स्थित नहीं होता, अपितु वह भक्ति की निम्नतम अवस्था में होता है। किन्तु वह प्रतिमा (विग्रह) के प्रति समस्त आदर प्रदर्शित करता है।

भक्त यद्यपि समस्त जीवों को आध्यात्मिक स्तर पर देखता है, किन्तु वह हर एक की संगति करने के लिए लालायित नहीं रहता। चूँकि शेर भगवान् का अंश है, अत: इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम उसे गले लगा लें। हमें केवल ऐसे ही व्यक्तियों की संगति करनी चाहिए जिनमें कृष्णभक्ति हो।

हमें ऐसे व्यक्तियों को मित्र बनाना चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए जिन्होंने कृष्णभक्ति विकसित कर ली है। अन्य जीव असंदिग्ध रूप से परमेश्वर के अंश हैं, किन्तु चूँकि उनकी चेतना अब भी प्रच्छन्न है और कृष्णभक्ति विकसित नहीं हुई, अत: हमें उनकी संगति छोड़ देनी चाहिए। विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है कि वैष्णव होते हुए भी यदि किसी का चरित्र अच्छा न हो तो उसकी संगति से बचना चाहिए, भले ही वैष्णव के रूप में वह पूजित क्यों न हो। जो भी विष्णु को भगवान् के रूप में स्वीकार करता है, वह वैष्णव है, किन्तु वैष्णव से आशा की जाती है कि वह अपने में देवताओं के सद्गुण विकसित करे।

श्रीधर स्वामी ने सत्त्वेन शब्द का सही अर्थ धैर्येण का पर्यायवाची माना है। मनुष्य को अत्यन्त धैर्यपूर्वक भक्ति करनी चाहिए। उसे भक्ति करनी इसलिए नहीं छोड़ देनी चाहिए कि उसके एक या दो प्रयास असफल रहे हैं। उसे प्रयास करते रहना चाहिए। श्रीरूप गोस्वमी भी पुष्टि करते हैं कि मनुष्य में उमंग होनी चाहिए और अत्यन्त धैर्य तथा विश्वास के साथ भक्ति करनी चाहिए। यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए कि, “कृष्ण मुझे अवश्य स्वीकार करेंगे, क्योंकि मैं भक्ति कर रहा हूँ” धैर्य अनिवार्य है। सफलता के लिए आवश्यक है कि विधि विधानों के अनुसार सेवा की जाय।

 
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