भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मनुष्य को भक्ति करनी चाहिए और आचार्य के गुरु बना करके ही आध्यात्मिक ज्ञान के पथ पर अग्रसर होना चाहिए। आचार्योपासनम्—मनुष्य को आचार्य की उपासना करनी चाहिए, क्योंकि आचार्य वह गुरु है, जो वस्तुओं को यथा-रूप जानता है। गुरु को कृष्ण से चली आ रही शिष्य-परम्परा में होना चाहिए। किसी गुरु का पूर्ववर्ती उसका गुरु होता है, जो उसका परम गुरु और उसका भी गुरु होता है और ये सब आचार्यों की शिष्य-परम्परा बनाते हैं। यहाँ संस्तुति की गई है कि सभी आचार्यों का सर्वाधिक सम्मान किया जाय। कहा गया है : गुरुषु नर मति:—जिसका अर्थ है गुरुओं को सामान्य व्यक्ति की भाँति सोचते हुए। किसी वैष्णव या भक्त को किसी जाति विशेष का सोचना, आचार्यों को सामान्य व्यक्ति के रूप में सोचना या मन्दिर की प्रतिमा को पत्थर, काष्ठ या धातु की बनी समझना निन्दनीय है। नियमेन—मान्य विधियों के अनुसार आचार्यों का सर्वाधिक सम्मान किया जाना चाहिए। भक्त को दीनों पर दयालु होना चाहिए। दीन का अर्थ ऐसा व्यक्ति नहीं जो भौतिक रूप से गरीबी के शिकार हैं। भक्ति की दृष्टि से वह व्यक्ति दीन है, जो कृष्णभक्त नहीं है। कोई व्यक्ति कितना ही धनवान क्यों न हो, किन्तु यदि वह कृष्णभक्त नहीं है, तो वह दीन (गरीब) है। दूसरी ओर रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी जैसे अनेक आचार्य हुए हैं, जो वृक्षों के नीचे रात-रात भर रहते थे। ऊपर से लगता था कि वे गरीबी से ग्रस्त हैं, किन्तु उनकी रचनाओं से पता चलता है कि आध्यात्मिक जीवन में वे कितने सम्पन्न महापुरुष थे।
जिनमें आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है, भक्त उन दीन आत्माओं को कृष्णभक्ति का मार्ग दिखलाकर दया दिखाते हैं। भक्त का यह कर्तव्य है। उसे ऐसे व्यक्तियों से मित्रता करनी चाहिए जो उसके समतुल्य हों या जिनका ज्ञान उसी के समान हो। भक्त को सामान्य व्यक्तियों के साथ मित्रता करने का कोई प्रयोजन नहीं है। उसे अन्य भक्तों के साथ मित्रता करनी चाहिए जिससे परस्पर विचार-विनिमय करके वे एक दूसरे को आध्यात्मिक बोध के पथ पर अग्रसर करा सकें। यह इष्टगोष्ठी कहलाती है।
भगवद्गीता में बोधयन्त: परस्परम्—“परस्पर विचार-विमर्श” करने का निर्देश है। सामान्यत: शुद्ध भक्त अपना अमूल्य समय भगवान् कृष्ण या भगवान् चैतन्य का कीर्तन करने तथा उनके कार्यकलापों के विषय में परस्पर विचार-विमर्श करने में लगाते हैं। ऐसी असंख्य कृतियाँ हैं—यथा पुराण, महाभारत, भागवत, भगवद्गीता, उपनिषद् जिनमें भक्तों के विचार विमर्श के अनुकूल असंख्य विषय हैं। पारस्परिक रुचियों तथा समझ के आधार पर व्यक्तियों के बीच मैत्री सुदृढ़ होनी चाहिए। ऐसे व्यक्ति ‘स्वजाति’ कहलाते हैं। भक्त को ऐसे व्यक्ति से बचना चाहिए जिसका चरित्र मानक विवेके अनुसार स्थिर न हो। भले ही वह वैष्णव या कृष्ण का भक्त क्यों न हो, यदि उसका चरित्र ठीक नहीं है, तो उससे दूर रहना चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि धीरे-धीरे इन्द्रियों तथा मन पर संयम प्राप्त करे, विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करे तथा समान स्तर वाले व्यक्तियों से मित्रता स्थापित करे।