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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.29.18 
आध्यात्मिकानुश्रवणान्नामसङ्कीर्तनाच्च मे ।
आर्जवेनार्यसङ्गेन निरहङ्‍‌क्रियया तथा ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
आध्यात्मिक—आध्यात्मिक बातें; अनुश्रवणात्—सुनने से; नाम-सङ्कीर्तनात्—पवित्र नाम के संकीर्तन से; —तथा; मे—मेरा; आर्जवेन—सरल आचरण से; आर्य-सङ्गेन—साधु पुरुषों की संगति से; निरहङ्क्रियया—अहंकार रहित; तथा—इस प्रकार ।.
 
अनुवाद
 
 भक्त को चाहिए कि आध्यात्मिक बात ही सुने और अपने समय का सदुपयोग भगवान् के पवित्र नाम के जप में करे। उसका आचरण सुस्पष्ट एवं सरल हो। किन्तु वह ईर्ष्यालु न हो। वह सबों के प्रति मैत्रीपूर्ण होते हुए भी ऐसे व्यक्तियों की संगति से बचे जो आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत नहीं हैं।
 
तात्पर्य
 आध्यात्मिक बोध में अग्रसर होने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में प्रामाणिक स्रोतों से श्रवण करना होता है। आध्यात्मिक जीवन की वास्तविकता समझने के लिए कठोर अनुष्ठानों का पालन करना चाहिए और इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखना चाहिए। नियन्त्रण प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अहिंसक तथा सत्यनिष्ठ बने, चोरी न करे, विषयी जीवन से दूर रहे और जीवन-निर्वाह के लिए कम से कम आवश्यक वस्तुएँ ही अपने पास रखे। वह न तो आवश्यकता से अधिक भोजन करे, न आवश्यकता से अधिक साज-सामान एकत्र करे; सामान्य व्यक्तियों से वृथा वार्तालाप न करे और बिना किसी उद्देश्य के विधि-विधानों को न अपनाए। केवल उन्हीं विधि-विधानों का पालन करे जिनसे वास्तविक प्रगति हो सके।

भगवद्गीता में अठरह गुण बताये गये हैं जिनमें से सादगी या सरलता भी एक है। मनुष्य को न तो गर्व करना चाहिए, न अन्यों से व्यर्थ का सम्मान कराना चाहिए। उसे अहिंसक होना चाहिए। अमानित्वम् अदम्भित्वम् अहिंसा। मनुष्य को अत्यन्त सहिष्णु तथा सरल होना चाहिए, उसे गुरु बनाना चाहिए और इन्द्रियों पर संयम रखना चाहिए। इसका उल्लेख यहाँ पर और साथ ही भगवद्गीता में भी हुआ है। मनुष्य को प्रामाणिक स्रोतों से श्रवण करना चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन में किस तरह प्रगति की जाय। ऐसे उपदेश आचार्य से ग्रहण करने चाहिए और उनको आत्मसात् करना चाहिए।

यहाँ पर नाम-संकीर्तनाच्च का विशेष उल्लेख है—अर्थात् मनुष्य को भगवान् के पवित्र नाम—हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे—का कीर्तन या तो अकेले या मिलकर करना चाहिए। भगवान् चैतन्य ने आध्यात्मिक उन्नति के मूलभूत सिद्धान्त के रूप में भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन पर विशेष बल दिया है। एक अन्य शब्द यहाँ प्रयुक्त हुआ है—आर्जवेन जिसका अर्थ है “बिना कूटनीति के।” भक्त को अपने हितार्थ कोई योजना नहीं बनानी चाहिए। निस्सन्देह, धर्मोपदेशकों को भगवान् के ध्येय को पूरा करने के लिए कभी-कभी समुचित मार्ग-निर्देशन के अन्तर्गत कुछ योजनाएँ बनानी पड़ती हैं, किन्तु जहाँ तक अपना हित है उसके सम्बन्ध में भक्त को सदैव कूटनीति से रहित होना चाहिए और उसे ऐसे व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए जो आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पा रहे। एक अन्य आर्य भी शब्द प्रयुक्त हुआ है। आर्य वे व्यक्ति हैं, जो कृष्णचेतना में प्रगति करने के साथ ही भौतिक समृद्धि में भी उन्नति करते हैं। आर्य तथा अनार्य या सुर तथा असुर के बीच जो अन्तर है, वह उनकी आध्यात्मिक प्रगति के स्तरों में अन्तर है। ऐसे व्यक्तियों की संगति वर्जित है, जो आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत नहीं हैं। भगवान् चैतन्य का उपदेश था—असत्-सङ्ग त्याग—जो लोग नाशवान वस्तुओं के प्रति अनुरक्त हैं ऐसे व्यक्तियों का त्याग करो। असत् वह है, जो भौतिक दृष्टि से अनुरक्त है, जो भगवान् का भक्त नहीं है तथा स्त्रियों या भोग्य वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्त रहता है। वैष्णव दर्शन के अनुसार ऐसा व्यक्ति अप्रिय पात्र है। भक्त को अपनी कमाई पर गर्व नहीं होना चाहिए। भक्त के लक्षण हैं उसकी विनयशीलता तथा सहिष्णुता। भले ही वह आध्यात्मिक दृष्टि से कितना ही उन्नत क्यों न हो वह सदैव विनीत तथा सहिष्णु बना रहता है, जैसाकि कविराज गोस्वामी तथा अन्य वैष्णवों ने अपने उदाहरणों द्वारा हमें शिक्षा दी है। चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा थी कि मनुष्य को रास्ते की घास से भी अधिक विनीत तथा वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु होना चाहिए। उसे न तो गर्व करना चाहिए न झूठे ही फूला रहना चाहिए। इस प्रकार वह आध्यात्मिक जीवन में निश्चित रूप से प्रगति कर सकेगा।

 
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