मद्धर्मणो गुणैरेतै: परिसंशुद्ध आशय: ।
पुरुषस्याञ्जसाभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
मत्-धर्मण:—मेरे भक्त के; गुणै:—गुणों से; एतै:—इन; परिसंशुद्ध:—पूर्णतया शुद्ध; आशय:—चेतना; पुरुषस्य— पुरुष की; अञ्जसा—तुरन्त; अभ्येति—निकट आता है; श्रुत—सुनकर; मात्र—केवल; गुणम्—गुण; हि—निश्चय ही; माम्—मुझको ।.
अनुवाद
जब मनुष्य इन समस्त लक्षणों से पूर्णतया सम्पन्न होता है और इस तरह उसकी चेतना पूरी तरह शुद्ध हो लेती है, तो वह मेरे नाम या मेरे दिव्य गुण के श्रवण मात्र से तुरन्त ही आकर्षित होने लगता है।
तात्पर्य
इस उपदेश के प्रारम्भ में ही भगवान् ने अपनी माता को बताया कि मद्गुण श्रुति-मात्रेण—मेरे (भगवान्) नाम, गुण, रूप आदि के श्रवण मात्र से मनुष्य अनुरक्त हो जाता है। विभिन्न शास्त्रों द्वारा अनुमोदित विधि-विधानों का पालन करने से मनुष्य समस्त दिव्य गुणों में पूर्ण योग्य बन जाता है। भौतिक संगति के कारण हमने जो कुछ अनावश्यक गुण विकसित कर लिये हैं उस कल्मष से उपर्युक्त प्रक्रिया का पालन करके हम छूट सकते हैं। पिछले श्लोक में वर्णित दिव्य गुणों को विकसित करने के लिए हमें इन कल्मषग्रस्त गुणों से मुक्त होना चाहिए।
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