यथा वातरथो घ्राणमावृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानमविकारि यत् ॥ २० ॥
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; वात—वायु का; रथ:—रथ; घ्राणम्—सूँघने की इन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय; आवृङ्क्ते—ग्रहण करती है; गन्ध:—सुगन्धि; आशयात्—स्रोत से; एवम्—उसी तरह; योग-रतम्—भक्ति में लगी हुई; चेत:—चेतना; आत्मानम्—परमात्मा; अविकारि—अपरिवर्तनशील; यत्—जो ।.
अनुवाद
जिस प्रकार वायु का रथ गन्ध को उसके स्रोत से ले जाता है और तुरन्त घ्राणेन्द्रिय तक पहुँचाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति निरन्तर कृष्णभावनाभावित भक्ति में संलग्न रहता है, वह सर्वव्यापी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
तात्पर्य
जिस तरह उद्यान के फूलों की सुगन्ध को ले जाने वाला समीर तुरन्त घ्राणेन्द्रिय तक पहुँच जाता है उसी प्रकार भक्ति-भाव से सिक्त-चेतना (भावना) परमेश्वर के दिव्य अस्तित्व तक पहुँच जाती है, क्योंकि भगवान् अपने परमात्मा रूप में सर्वत्र, प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान रहते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि भगवान् क्षेत्रज्ञ हैं, इस शरीर के भीतर विद्यमान हैं, किन्तु एक ही समय वे अन्य शरीर में भी रहते हैं। चूँकि अमुक आत्मा किसी अमुक शरीर में ही विद्यान रहता है, अत: जब अन्य आत्मा उसका साथ नहीं देता तो वह बदल जाता है। किन्तु परमात्मा समान रूप से सर्वत्र विद्यमान रहता है। व्यष्टि आत्माएँ विरोधी हो सकती हैं; किन्तु हर शरीर में विद्यमान होने के कारण परमात्मा अविकारी अर्थात् अपरिवर्तनशील कहलाता है। जब व्यष्टि आत्मा कृष्णभक्ति से सिक्त हो जाता है तभी वह परमात्मा की उपस्थिति को समझ सकता है। भगवद्गीता में पुष्टि की गई है कि कृष्णभावनामृत से पूरित व्यक्ति ही भगवान् को या तो परमात्मा या परम पुरुष के रूप में जान सकता है(भक्त्या माम् अभिजानाति)।
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