अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थित: सदा ।
तमवज्ञाय मां मर्त्य: कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
अहम्—मैं; सर्वेषु—समस्त; भूतेषु—जीवों में; भूत-आत्मा—सभी जीवों में परमात्मा; अवस्थित:—स्थित; सदा— सदैव; तम्—उस (परमात्मा) को; अवज्ञाय—अनादर करके; माम्—मुझको; मर्त्य:—मरणशील व्यक्ति; कुरुते— करता है; अर्चा—विग्रह की पूजा का; विडम्बनम्—अनुकरण, स्वाँग ।.
अनुवाद
मैं प्रत्येक जीव में परमात्मा रूप में स्थित हूँ। यदि कोई ‘परमात्मा सर्वत्र है’ इसकी उपेक्षा या अवमानना करके अपने आपको मन्दिर के विग्रह-पूजन में लगाता है, तो यह केवल स्वाँग या दिखावा है।
तात्पर्य
विशुद्ध चेतनामय या कृष्णभावनाभावित होने पर मनुष्य को सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण दिखते हैं। अत: यदि कोई मन्दिर में विग्रह-पूजा में ही लगा रहता है और अन्य जीवों को मान्यता नहीं देता तो वह भक्ति की निम्नतम अवस्था में होता है। जो मन्दिर में विग्रह पूजन करता है और अन्यों के प्रति सम्मान नहीं दिखाता वह भौतिक भक्त है और भक्ति की निम्नतम अवस्था में स्थित होता है। भक्त को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु को कृष्ण से सम्बन्धित समझे और उसी भाव से हर प्राणी की सेवा करे। हर वस्तु की सेवा करने का अर्थ है भगवान् की सेवा में हर वस्तु को लगाना। यदि कोई व्यक्ति अबोध है और कृष्ण से अपने सम्बन्ध को नहीं जानता, तो किसी सिद्ध भक्त को चाहिए कि उसे कृष्ण की सेवा में लगावे। ऐसा सिद्ध भक्त न केवल जीवों को, अपितु हर वस्तु को कृष्ण की सेवा में लगा सकता है।
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