श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.29.23 
द्विषत: परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिन: ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मन: शान्तिमृच्छति ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
द्विषत:—द्वेष रखने वाले का; पर-काये—दूसरे के शरीर के प्रति; माम्—मुझको; मानिन:—आदर करते हुए; भिन्न दर्शिन:—पृथकतवादी का; भूतेषु—जीवों के प्रति; बद्ध-वैरस्य—शत्रुता रखने वाले का; न—नहीं; मन:—मन; शान्तिम्—शान्ति; ऋच्छति—प्राप्त करता है ।.
 
अनुवाद
 
 जो मुझे श्रद्धा अर्पित करता है, किन्तु अन्य जीवों से ईर्ष्यालु है, वह इस कारण पृथकतावादी है। उसे अन्य जीवों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने के कारण कभी भी मन की शान्ति प्राप्त नहीं हो पाती।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में भूतेषु बद्धवैरस्य (अन्यों के प्रति शत्रुतापूर्ण) तथा द्विषत: परकाये (अन्य के शरीर से ईष्यालु) ये दो वाक्यांश महत्त्वपूर्ण हैं। जो व्यक्ति अन्यों के प्रति द्वेष-भाव या शत्रुता रखता है, वह कभी सुखी नहीं रहता। अत: भक्त की दृष्टि परिपूर्ण होनी चाहिए। उसे शारीरिक उपाधियों की अनदेखी करते हुए परमेश्वर के अंश तथा परमात्मा के रूप में साक्षात् भगवान् की उपस्थिति देखनी चाहिए। यही शुद्ध भक्त की दृष्टि है। भक्त द्वारा किसी जीव की बाह्य शारीरिक अभिव्यक्ति की उपेक्षा की जाती है।

यहाँ यह व्यक्त हुआ है कि भगवान् बद्धजीवों के उद्धार के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। भक्तों से अपेक्षा की जाती है कि वे भगवान् के उद्देश्य या उनकी इच्छा को ऐसे बद्धजीवों तक ले जावेंगे और उन्हें कृष्णभावनामृत से आलोकित करेंगे। इस प्रकार वे दिव्य भौतिक जीवन तक उठ सकते हैं और उनके जीवन का उद्देश्य सफल हो सकता है। निस्सन्देह जो जीव मनुष्य से निम्न हैं, उनके लिए ऐसा सम्भव नहीं है, किन्तु मानव समाज में तो यह सम्भव है कि सभी प्राणियों को कृष्णभक्ति से आलोकित किया जा सके। यहाँ तक कि मनुष्य से निम्न प्राणी भी अन्य विधियों से कृष्णभक्ति तक ऊपर उठाये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, चैतन्य महाप्रभुके परम भक्त शिवानन्द सेन ने एक कुत्ते का प्रसाद खिलाकर उद्धार किया। यहाँ तक कि अज्ञानी जन समुदाय तथा पशुओं को प्रसाद वितरित करने से उनको कृष्णभक्ति तक उठने का अवसर मिल जाता है। वास्तव में ऐसा हुआ कि वही कुत्ता, जब चैतन्य महाप्रभु को पुरी में मिला तो उसे भवबन्धन से मुक्ति मिल गई।

यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेख है कि भक्त को सभी प्रकार की हिंसा (जीवहिंसा) से मुक्त होना चाहिए। भगवान् चैतन्य ने संस्तुति की है कि भक्त को किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। कभी-कभी यह प्रश्न उठाया जाता है कि चूँकि वनस्पतियों में भी जीवन है और भक्तगण शाक खाते हैं, तो क्या यह हिंसा नहीं है? किन्तु पहले तो यह कि वृक्ष से कुछ पत्तियाँ, टहनियाँ या फल तोडऩे लेने से वह वृक्ष मरता नहीं। इसके अतिरिक्त, जीवहिंसा का अर्थ है कि चूँकि प्रत्येक जीव को अपने पूर्वकर्म के अनुसार विशेष शरीर धारण करना पड़ता है, भले ही प्रत्येक जीव शाश्वत हो, अत: उसे अपने क्रमिक विकास से विचलित नहीं होना चाहिए। भक्त को भक्ति सम्बन्धी सारे नियम यथावत् पूरे करने होते हैं। उसे यह जानना चाहिए कि कोई जीव कितना ही क्षुद्र क्यों न हो उसके भीतर भगवान् उपस्थित हैं। भक्त को भगवान् की इस सर्वव्यापकता को समझना चाहिए।

 
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