श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.29.25 
अर्चादावर्चयेत्तावदीश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
अर्चा-आदौ—अर्चा पूजा इत्यादि; अर्चयेत्—पूजा करे; तावत्—तब तक; ईश्वरम्—भगवान् को; माम्—मुझ; स्व—अपना; कर्म—निर्दिष्ट कर्तव्य; कृत्—किये हुए; यावत्—जब तक; न—नहीं; वेद—अनुभव करता है; स्व हृदि—अपने हृदय में; सर्व-भूतेषु—समस्त जीवों में; अवस्थितम्—स्थित ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को चाहिए कि अपने निर्दिष्ट कर्म करते हुए भगवान् के अर्चाविग्रह का तब तक पूजन करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में तथा साथ ही साथ अन्य जीवों के हृदय में मेरी उपस्थिति का अनुभव न हो जाय।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर उन लोगों के लिए भी भगवान् के विग्रह (प्रतिमा) की पूजा करने की आज्ञा दी गई है, जो केवल अपने निर्दिष्ट कर्म में लगे रहते हैं। विभिन्न वर्ण के लोगों यथा— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण के लोगों तथा विभिन्न आश्रमों यथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास के लिए कुछ निर्दिष्ट कर्म हैं। मनुष्य को तब तक भगवान् के विग्रह (प्रतिमा) की पूजा करनी चाहिए जब तक वह प्रत्येक जीव में भगवान् की उपस्थिति का अनुभव न करने लगे। दूसरे शब्दों में, उस मनुष्य को अपने कर्तव्यों को सही-सही निबाहने में ही सन्तुष्ट रहना चाहिए। उसे अपना तथा अन्य जीवों का भगवान् के साथ जो सम्बन्ध है, उसे अनुभव करना चाहिए। यदि वह इतना नहीं समझता, तो यह समझना चाहिए कि भले ही वह अपना कर्म ठीक से निबाह रहा हो, किन्तु वह व्यर्थ ही श्रम कर रहा है।

इस श्लोक में स्व-कर्म-कृत् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्व-कर्म-कृत् का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो अपने निर्दिष्ट कर्मों को पूरा करता है। ऐसा नहीं है कि जो भगवान् का भक्त बन जाता है अथवा भक्ति करता है, उसे अपने निर्दिष्ट कर्म बन्द कर देने चाहिए। किसी को भक्ति के बहाने आलसी नहीं बनना चाहिए। उसे निर्दिष्ट कर्मों के अनुसार भक्ति करनी है। स्व-कर्म- कृत् बताता है कि मनुष्य को बिना लापरवाही के अपने निर्दिष्ट कर्म करने चाहिए।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥