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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.29.26 
आत्मनश्च परस्यापि य: करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य भिन्नद‍ृशो मृत्युर्विदधे भयमुल्बणम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
आत्मन:—स्व का, अपना; —तथा; परस्य—दूसरे का; अपि—भी; य:—जो कोई; करोति—भेदभाव रखता है; अन्तरा—मध्य में; उदरम्—शरीर के; तस्य—उसका; भिन्न-दृश:—भेद-दर्शी; मृत्यु:—मृत्यु के रूप में; विदधे—मैं उत्पन्न करता हूँ; भयम्—डर; उल्बणम्—महान ।.
 
अनुवाद
 
 जो भी अपने में तथा अन्य जीवों के बीच भिन्न दृष्टिकोण के कारण तनिक भी भेदभाव करता है उसके लिए मैं मृत्यु की प्रज्ज्वलित अग्नि के समान महान् भय उत्पन्न करता हूँ।
 
तात्पर्य
 समस्त प्रकार के जीवों के बीच अनेक शारीरिक भिन्नताएं हैं, किन्तु भक्त को इस आधार पर एक जीव तथा दूसरे जीव में भेदभाव नहीं करना चाहिए। भक्त का दृष्टिकोण तो यह होना चाहिए कि समस्त प्रकार के जीवों में आत्मा तथा परमात्मा दोनों ही समान रूप से उपस्थित हैं।
 
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