लोगों की यह भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए कि चूँकि परमात्मा हर प्राणी के हृदय में वास करता है इसलिए व्यष्टि आत्मा उसके तुल्य है। परमात्मा तथा आत्मा की समानता निर्विशेषवादियों के मन की उपज है। यहाँ स्पष्ट उल्लेख है कि आत्मा को भगवान् के सम्बन्ध में ही मान्यता देनी चाहिए। आत्मा की पूजा विधि यहाँ इस प्रकार बताई गई है कि या तो दान देकर, या पृथकतावादी दृष्टिकोण से मुक्त होकर मैत्रीभाव से आचरण किया जाय। कभी-कभी निर्विशेषवादी बेचारे आत्मा को दरिद्र-नारायण के रूप में मान लेते हैं—जिसका अर्थ है भगवान् नारायण दरिद्र (गरीब) हो गये हैं। यह विरोधाभास है। भगवान् सर्व ऐश्वर्यों से परिपूर्ण हैं। वे किसी दरिद्र आत्मा के साथ अथवा पशु तक के साथ रहना स्वीकार कर लेंगे, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे दरिद्र हो गये हैं। यहाँ पर संस्कृत के दो शब्द आये हैं—मान तथा दान। मान श्रेष्ठ का सूचक है और दान उसको बताता है, जो दान देता है या किसी कनिष्ट पर दया दिखाता है। हम भगवान् को ऐसा निम्न व्यक्ति नहीं मान सकते जो हमारे दान पर आश्रित हो। जब हम दान देते हैं, तो सदैव अपने से निम्न भौतिक या आर्थिक अवस्था वाले को देते हैं। दान कभी धनी व्यक्ति को नहीं दिया जाता। इसी प्रकार अप्रत्यक्षत: बताया गया है कि मान या आदर श्रेष्ठ को दिया जाता है, जबकि दान अपने से निम्न को।
अपने कर्मफलों के अनुसार जीवात्मा धनी या निर्धन हो सकता है, किन्तु परमेश्वर अपरिवर्तित रहा आता है, वह तो सदैव छह ऐश्वर्यों से सम्पन्न रहता है। जीवों के प्रति समभाव रखने का अर्थ यह नहीं है कि उस जीव के साथ भगवान् जैसा व्यवहार बरता जाय। दया तथा मैत्री का अर्थ यह नहीं है कि किसी को झूठे ही परमेश्वर के उच्च पद तक उठा दिया जाय। किन्तु साथ ही हमें इस भ्रम में भी नहीं पडऩा चाहिए कि शूकर जैसे पशु के हृदय में स्थित परमात्मा तथा एक विद्वान ब्राह्मण के हृदय में स्थित परमात्मा भिन्न-भिन्न हैं। सभी जीवों में स्थित परमात्मा एक ही परमेश्वर है। अपनी सर्वशक्तिमत्ता से भगवान् कहीं भी रह सकता है और कहीं भी वैकुण्ठलोक जैसी परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है। यही उनकी अचिन्त्य शक्ति है। अत: जब नारायण एक शूकर के हृदय में वास करता है, तो वह शूकर-नारायण नहीं बन जाता। वह शूकर की देह से अप्रभावित रहकर सदैव नारायण बना रहता है।