इस श्लोक में सम-दर्शनात् का अर्थ है कि उसका कोई पृथक् स्वार्थ नहीं होता। भक्त तथा भगवान् के स्वार्थ एक-से हैं। उदाहरणार्थ, भक्त रूप में भगवान् चैतन्य ने भी इसी दर्शन का उपदेश दिया कि कृष्ण ही पूज्य भगवान् हैं और उनके शुद्ध भक्तों का स्वार्थ (रुचि) उनका निजी स्वार्थ है। कभी-कभी मायावादी चिन्तक अपने अल्पज्ञान के कारण सम-दर्शनात् शब्द की परिभाषा इस प्रकार करते हैं कि भक्त को भगवान् तथा अपने आपको एक करके देखना चाहिए। यदि कोई अपने को भगवान् मान ले तो फिर उनकी सेवा करने का प्रश्न ही नहीं उठता। जब सेवा है, तो स्वामी(सेव्य) भी होना चाहिए। सेवा के लिए तीन बातें होनी चाहिए—स्वामी (सेव्य), सेवक तथा सेवा। यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि जिसने भगवान् को सन्तुष्ट करने के लिए अपना जीवन, अपने कर्म, मन तथा आत्मा—सब कुछ अर्पित कर दिये हों उसे महापुरुष समझना चाहिए।
अकर्तु: शब्द का अर्थ है “किसी प्रकार के स्वामित्व-भाव के बिना”। हर व्यक्ति अपने कर्मों का स्वामी (कर्ता) बनना चाहता है, जिससे वह फल भोग सके। किन्तु भक्त को ऐसी इच्छा नहीं रहती, वह कर्म करता है, क्योंकि भगवान् उससे विशेष प्रकार से कर्म कराना चाहता है। उसका कोई निजी मन्तव्य नहीं रहता। जब भगवान् चैतन्य भक्ति का उपदेश देते थे, तो उनका मन्तव्य यह नहीं था कि लोग उन्हें भगवान् कृष्ण मानें; अपितु उन्होंने उपदेश दिया कि कृष्ण ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं और उनकी इसी रूप में पूजा होनी चाहिए। जो भक्त भगवान् का अत्यन्त विश्वासपात्र सेवक होता है, वह अपने लिए कुछ नहीं चाहता, भगवान् की तुष्टि के लिए ही सब कुछ करता है। अत: यह स्पष्ट कहा गया है—मयि संन्यस्तकर्मण:—भक्त कर्म करता है, किन्तु भगवान् के लिए करता है। यह भी कहा गया है—मय्यर्पितात्मन:—“वह मुझे अपना मन अर्पित करता है।” ये सब भक्त के गुण हैं और इस श्लोक के अनुसार वह मनुष्यों में सर्वोपरि माना जाता है।