श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  3.29.41 
यद्वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभि: सह ।
स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—जिसके कारण; वन:-पतय:—वृक्ष; भीता:—भयभीत; लता:—लताएँ; च—तथा; ओषधिभि:—जड़ी बूटियाँ; सह—साथ; स्वे स्वे काले—अपनी-अपनी ऋतु में; अभिगृह्णन्ति—धारण करते हैं; पुष्पाणि—फूल; च— तथा; फलानि—फल; च—भी ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के भय से वृक्ष, लताएँ, जड़ी-बूटियाँ तथा मौसमी पौधे और फूल अपनी- अपनी ऋतु में फूलते और फलते हैं।
 
तात्पर्य
 जिस प्रकार भगवान् की अध्यक्षता में सूर्य का उदय-अस्त होता है और निर्धारित समय से ऋतु-परिवर्तन होता रहता है, उसी तरह सामयिक पौधे, फूल, औषधियाँ तथा वृक्ष भी भगवान् के आदेश से बढ़ते हैं। ऐसा नहीं है कि पौधे अकारण ही और स्वत: बढ़ते हों जैसाकि नास्तिक कहते हैं, अपितु वे भगवान् के परम आदेशानुसार बढ़ते हैं। वैदिक साहित्य से पुष्टि होती है कि भगवान् की शक्तियाँ इतने सुचारु रूप से काम करती हैं कि ऐसा लगता है जैसे सब कुछ स्वत: हो रहा हो।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥