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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  3.29.42 
स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यत: ।
अग्निरिन्धे सगिरिभिर्भूर्न मज्जति यद्भयात् ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
स्रवन्ति—बहती हैं; सरित:—नदियाँ; भीता:—डरी हुई; —नहीं; उत्सर्पति—उमड़ कर बहते हैं; उद-धि:—सागर; यत:—जिसके कारण; अग्नि:—अग्नि; इन्धे—जलती है; स-गिरिभि:—पर्वतों सहित; भू:—पृथ्वी; —नहीं; मज्जति—डूबती है; यत्—जिसके; भयात्—भय से ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के भय से नदियाँ बहती हैं तथा सागर कभी भरकर बाहर नहीं बहते। उनके ही भय से अग्नि जलती है और पृथ्वी अपने पर्वतों सहित ब्रह्माण्ड के जल में डूबती नहीं।
 
तात्पर्य
 वैदिक साहित्य से हम जान सकते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का आधा भाग जल से भरा हुआ है, जिसमें गर्भोदकशायी विष्णु शयन करते हैं। उनके उदर से एक कमल का फूल निकलता है और इस फूल के डंठल पर सारे लोक स्थित हैं। भौतिकतावादी विज्ञानी कहता है कि ये सारे लोक गुरुत्वाकर्षण के नियम या अन्य नियम के कारण तैर रहे हैं, किन्तु वास्तविक विधायक श्रीभगवान् हैं। जब हम नियम की बात करते हैं, तो हमें यह भी समझना चाहिए कि नियम बनाने वाला (विधायक) भी कोई-न-कोई होगा। भौतिक विज्ञानी प्रकृति के नियमों को खोज तो सकते हैं, किन्तु वे नियामक (विधायक) को पहचान नहीं पाते। श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता से हम जान सकते हैं कि नियम बनाने वाला कौन है : नियम बनानेवाला पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् है।

यह कहा गया है कि सारे लोक कभी डूबते नहीं, क्योंकि वे भगवान् के आदेश से या उनकी शक्ति से तैर रहे हैं, अत: वे ब्रह्माण्ड का आधा भाग घेरने वाले जल में डूबते नहीं। सारे लोक अपने-अपने पर्वतों, समुद्रों, महासागरों, नगरों, महलों आदि के कारण भारी हैं फिर भी तैरते रहते हैं। इस श्लोक से यह समझ में आता है कि वायु में तैरने वाले अन्य समस्त लोकों में इसी लोक की भाँति सागर तथा पर्वत हैं।

 
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