शाश्वत काल खण्ड का न आदि है और न अन्त। वह इस पातकी संसार के स्रष्टा भगवान् का प्रतिनिधि है। वह दृश्य जगत का अन्त कर देता है, एक को मार कर दूसरे को जन्म देता है और इसका सृजन कार्य करता है। इसी तरह मृत्यु के स्वामी यम को भी नष्ट करके ब्रह्माण्ड का विलय कर देता है।
तात्पर्य
भगवान् के प्रतिनिधिस्वरूप काल के प्रभाव से ही पिता पुत्र को जन्म देता है और पिता क्रूर मृत्यु के प्रभाव से मर जाता है। किन्तु काल के प्रभाव से क्रूर मृत्यु का स्वामी भी मारा जाता है। दूसरे शब्दों में, इस संसार के सारे देवता हमारी ही तरह नाशवान हैं, हमारा जीवन अधिक-से-अधिक एक सौ वर्ष चलता है। इसी तरह यद्यपि देवताओं का जीवन लाखों वर्ष चलता है, किन्तु वे भी शाश्वत नहीं हैं। इस संसार में कोई भी अनन्तकाल तक जीवित नहीं रह सकता। यह दृश्य जगत भगवान् के इशारे से उत्पन्न होता है, पलता है और विनष्ट होता है। अत: भक्त इस संसार में कुछ भी नहीं करता। वह भगवान् की केवल सेवा करना चाहता है। यही दास्य भाव शाश्वत है और सेवा भी शाश्वत बनी रहती है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या” नामक उन्तीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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