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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.29.6 
मैत्रेय उवाच
इति मातुर्वच: श्लक्ष्णं प्रतिनन्द्य महामुनि: ।
आबभाषे कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणार्दित: ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; इति—इस प्रकार; मातु:—उनकी माता के; वच:—शब्द; श्लक्ष्णम्—भद्र; प्रतिनन्द्य—स्वागत करते हुए; महा-मुनि:—ऋषि कपिल; आबभाषे—बोले; कुरु-श्रेष्ठ—हे कुरुओं में श्रेष्ठ, विदुर; प्रीत:—प्रसन्न; ताम्—उससे; करुणा—दया से; अर्दित:—द्रवीभूत ।.
 
अनुवाद
 
 श्री मैत्रेय ने कहा : हे कुरुश्रेष्ठ, अपनी महिमामयी माता के शब्दों से प्रसन्न होकर तथा अत्यधिक अनुकम्पा से द्रवित होकर महामुनि कपिल इस प्रकार बोले।
 
तात्पर्य
 भगवान् कपिल अपनी माता की प्रार्थना से अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि वे अपने व्यक्तिगत मोक्ष के प्रति उतनी चिन्तित न थीं जितनी कि पतित बद्धजीवों के प्रति चिन्तित थीं। भगवान् इस जगत की पतितात्माओं पर सदैव कृपालु रहते हैं, अत: उनका उद्धार करने के लिए वे या तो स्वयं अवतरित होते हैं या अपने विश्वासपात्र दासों को भेजते हैं। चूँकि वे निरन्तर उनके प्रति सदय रहते हैं, अत: यदि उनका कोई भक्त भी उन सबों के प्रति दयालु हो उठता है, तो वे भक्तों से अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है कि जो लोग पतितात्माओं को भगवद्गीता के इस निष्कर्ष का कि भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण करो, उपदेश देकर उन्हें उठाने का प्रयत्न करते हैं, वे भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं। अत: जब भगवान् ने देखा कि उनकी माता पतित जीवों के प्रति अत्यन्त सदय हैं, तो वे प्रसन्न हुए और वे उन पर अत्यन्त कृपालु हो गये।
 
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