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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  3.29.8 
अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा ।
संरम्भी भिन्नद‍ृग्भावं मयि कुर्यात्स तामस: ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
अभिसन्धाय—दृष्टि में रखकर; य:—जो; हिंसाम्—हिंसा को; दम्भम्—गर्व को; मात्सर्यम्—ईर्ष्या को; एव— निस्सन्देह; वा—अथवा; संरम्भी—क्रोधी; भिन्न—पृथक्; दृक्—जिसकी दृष्टि; भावम्—भक्ति; मयि—मुझमें; कुर्यात्—करे; स:—वह; तामस:—तमोगुणी ।.
 
अनुवाद
 
 ईर्ष्यालु, अहंकारी, हिंस्त्र तथा क्रोधी और पृथकतावादी व्यक्ति द्वारा की गई भक्ति तमोगुण प्रधान मानी जाती है।
 
तात्पर्य
 श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के द्वितीय अध्याय में पहले ही कहा जा चुका है कि सर्वोच्च, सर्वाधिक यशस्वी धर्म है अहैतुकी भक्ति की प्राप्ति। शुद्ध भक्ति का एकमात्र ध्येय भगवान् को प्रसन्न करना होना चाहिए। वस्तुत: यह ध्येय नहीं है, यह जीव की शुद्ध अवस्था है। बद्ध अवस्था में रहकर जब कोई भक्ति में प्रवृत्त होता है, तो उसे पूर्णतया समर्पित भाव से प्रामाणिक गुरु का आदेश मानना चाहिए। गुरु परमेश्वर का प्रकट प्रतिनिधि होता है, क्योंकि वह ईश्वर से आदेश प्राप्त करता है और उन्हें यथारूप प्रस्तुत करता है, क्योंकि वे शिष्य परम्परा से चले आते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि उसमें निहित उपदेशों को शिष्य परम्परा से प्राप्त किया जाय अन्यथा उसमें मिलावट रहती है। श्रीभगवान् को प्रसन्न रखने के ध्येय से प्रामाणिक गुरु के निर्देशन के अनुसार कर्म करना ही शुद्ध भक्ति है। किन्तु यदि उसका ध्येय व्यक्तिगत इन्द्रियतृप्ति हो तो उसकी भक्ति भिन्न प्रकार से प्रकट होती है। ऐसा व्यक्ति हिंसक, दम्भी, ईष्यालु तथा क्रोधी हो सकता है और उसके स्वार्थ भगवान् से पृथक् होते हैं। जो व्यक्ति भगवान् के पास भक्तिमय सेवा करने के उद्देश्य से जाता है, किन्तु अपने व्यक्तित्व के प्रति गर्वित रहता है, अन्यों से ईर्ष्यालु रहता है या प्रतिशोध लेता है, वह क्रोधी होता है। वह अपने को सर्वश्रेष्ठ भक्त समझता है। इस प्रकार की गई भक्ति शुद्धि नहीं होती; यह मिश्रित है और निम्नतम कोटि की अर्थात् तामस: है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती का उपदेश है कि जस वैष्णव का चरित्र अच्छान हो उससे दूर रहना चाहिए। वैष्णव वह है, जो भगवान् को जीवन का परम लक्ष्य मानता है, किन्तु यदि कोई शुद्ध नहीं है और कामनाएँ रखता है, तो वह उत्तम चरित्र वाला प्रथम कोटि का वैष्णव नहीं है। ऐसे वैष्णव का आदर किया जा सकता है, क्योंकि उसने भगवान् को जीवन का परम लक्ष्य मान लिया है। किन्तु जो वैष्णव तमोगुणी (तामसी) हो उसकी संगति नहीं करनी चाहिए।
 
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