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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 3: वृन्दावन से बाहर भगवान् की लीलाएँ  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.3.13 
सकर्णदु:शासनसौबलानां
कुमन्त्रपाकेन हतश्रियायुषम् ।
सुयोधनं सानुचरं शयानं
भग्नोरुमूर्व्यां न ननन्द पश्यन् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह (भगवान्); कर्ण—कर्ण; दु:शासन—दु:शासन; सौबलानाम्—सौबल; कुमन्त्र-पाकेन—कुमंत्रणा की जटिलता से; हत-श्रिय—सम्पत्ति से विहीन; आयुषम्—आयु से; सुयोधनम्—दुर्योधन; स-अनुचरम्—अनुयायियों सहित; शयानम्—लेटे हुए; भग्न—टूटी; ऊरुम्—जंघाएँ; ऊर्व्याम्—अत्यन्त शक्तिशाली; —नहीं; ननन्द—आनन्द मिला; पश्यन्—इस तरह देखते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 कर्ण, दु:शासन तथा सौबल की कुमंत्रणा के कपट-योग के कारण दुर्योधन अपनी सम्पत्ति तथा आयु से विहीन हो गया। यद्यपि वह शक्तिशाली था, किन्तु जब वह अपने अनुयायियों समेत भूमि पर लेटा हुआ था उसकी जाँघें टूटी थीं। भगवान् इस दृश्य को देखकर प्रसन्न नहीं थे।
 
तात्पर्य
 धृतराष्ट्र के अग्रणी पुत्र दुर्योधन का पतन भगवान् को अच्छा नहीं लगा, यद्यपि वे अर्जुन के पक्ष में थे और उन्होंने ही भीम को सलाह दी थी कि युद्ध में दुर्योधन की जाँघें किस तरह तोड़े। भगवान् को बाध्य होकर बुराई करने वाले को दण्ड देना पड़ता है, किन्तु ऐसा दण्ड देते हुए वे प्रसन्न नहीं होते, क्योंकि सारे जीव मूलत: उनके भिन्नांश होते हैं। वे बुराई करने वाले के प्रति वज्र से भी कठोर तथा श्रद्धावानों के प्रति गुलाब के फूल से भी कोमल रहते हैं। बुराई करने वाला कुसंगियों द्वारा तथा कुमंत्रणा द्वारा दिग्भ्रमित हो जाता है, जो भगवान् के आदेश के अन्तर्गत स्थापित सिद्धान्तों के प्रतिकूल है, और इस प्रकार वह दण्ड का भागी बनता है। सुख का सबसे निश्चित मार्ग भगवान् द्वारा बनाये गये सिद्धान्तों का पालन करना तथा उनके द्वारा स्थापित नियमों का उल्लंघन न करना है। ये नियम भुलक्कड़ जीवों के लिए वेदों तथा पुराणों में निरूपित हैं।
 
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