कियान्—यह क्या है; भुव:—पृथ्वी पर; अयम्—यह; क्षपित—घटा हुआ; उरु—बहुत बड़ा; भार:—भार, बोझा; यत्—जो; द्रोण—द्रोण; भीष्म—भीष्म; अर्जुन—अर्जुन; भीम—भीम; मूलै:—सहायता से; अष्टादश—अठारह; अक्षौहिणिक:—सैन्यबल की व्यूह रचना (देखें भागवत १.१६.३४); मत्-अंशै:—मेरे वंशजों के साथ; आस्ते—अब भी हैं; बलम्—महान् शक्ति; दुर्विषहम्—असह्य; यदूनाम्—यदुवंश की ।.
अनुवाद
[कुरुक्षेत्र युद्ध की समाप्ति पर भगवान् ने कहा] अब द्रोण, भीष्म, अर्जुन तथा भीम की सहायता से अठारह अक्षौहिणी सेना का पृथ्वी का भारी बोझ कम हुआ है। किन्तु यह क्या है? अब भी मुझी से उत्पन्न यदुवंश की विशाल शक्ति शेष है, जो और भी अधिक असह्य बोझ बन सकती है।
तात्पर्य
यह एक गलत सिद्धान्त है कि जनसंख्या वृद्धि से संसार अतिबोझिल हो उठता है और इसीलिए युद्ध तथा अन्य संहारक प्रक्रियाएँ होती हैं। पृथ्वी कभी भी अतिबोझिल नहीं होती। पृथ्वी पर स्थित गुरुतम पर्वतों तथा समुद्रों में मनुष्यों की अपेक्षा अधिक जीव रहते हैं, किन्तु वे कभी अतिबोझिल नहीं होते। यदि पृथ्वी की सतह पर रहने वाले समस्त जीवों की गणना की जाय तो यह निश्चित रूप से पाया जाएगा कि मनुष्यों की जनसंख्या समस्त जीवों की संख्या का पाँच प्रतिशत भी नहीं है। यदि मनुष्यों की जन्म दर बढ़ रही है, तो उसी अनुपात में अन्य जीवों की जन्म दर भी बढ़ रही है। निम्नतर पशुओं—थलचरों, जलचरों, पक्षियों—की जन्म दर मनुष्यों की अपेक्षा कहीं अधिक है। भगवान् के आदेश से पृथ्वी के सारे जीवों के लिए भोजन की पर्याप्त व्यवस्था है और यदि जीवों में असमानुपातिक वृद्धि हो तो वे और अधिक की व्यवस्था कर सकते हैं।
इसलिए जनसंख्या में वृद्धि से भार बढऩे का प्रश्न ही नहीं उठता। पृथ्वी धर्मग्लानि अर्थात् भगवान् की इच्छा के अनियमित पालन से अतिबोझिल हो गई थी। भगवान् दुष्टों की वृद्धि रोकने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए, न कि जनसंख्या में वृद्धि के कारण जैसाकि संसारी अर्थशास्त्रियों द्वारा मिथ्या कथन किया जाता है। जब भगवान् कृष्ण प्रकट हुए तो ऐसे दुष्टों की संख्या काफी बढ़ गई थी जो भगवान् की इच्छाओं का उल्लंघन कर रहे थे। यह भौतिक सृष्टि भगवान् की इच्छापूर्ति के लिए है और उनकी यह इच्छा है कि वे बद्धजीव जो भगवद्धाम में प्रवेश पाने के अयोग्य हैं उन्हें प्रवेश पाने के लिए अपनी स्थिति सुधारने का अवसर प्राप्त हो। विश्व व्यवस्था की समूची प्रक्रिया का मन्तव्य बद्धजीव को भगवद्धाम में प्रवेश करने का अवसर प्रदान करना है। और भगवान् ने उनके भरण-पोषण के लिए पर्याप्त व्यवस्था कर रखी है।
इसलिए भले ही पृथ्वी पर जनसंख्या की महती वृद्धि क्यों न हो, यदि लोग ईशभावनामृत का सही ढंग से पालन करते हैं और दुष्ट नहीं हैं, तो पृथ्वी का यह भार उसके लिए आनन्द का स्रोत है। भार दो प्रकार के होते हैं—पशु-भार तथा प्रेम-भार। पशु-भार असह्य होता है, किन्तु प्रेम-भार आनन्द का स्रोत होता है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ने प्रेम-भार का अत्यन्त व्यावहारिक वर्णन किया है। वे कहते हैं कि युवा पत्नी पर पति का भार, माता की गोद में शिशु का भार तथा व्यापारी पर सम्पत्ति का भार, ये यद्यपि गुरुता की दृष्टि से वास्तव में भार हैं, किन्तु ये आनन्द के स्रोत हैं और ऐसी बोझिल वस्तुओं के अभाव में वियोग का बोझ अनुभव हो सकता है, जो प्रेम के वास्तविक भार की अपेक्षा सहन किये जाने में अधिक भारी होता है। जब भगवान् कृष्ण ने पृथ्वी पर यदुवंश के भार की बात की, तो उन्होंने पशुभार से कुछ भिन्न वस्तु का प्रसंग छेड़ा। कृष्ण से उत्पन्न पारिवारिक सदस्यों की संख्या लाखों में थी और यह सचमुच ही पृथ्वी की जनसंख्या में महान् वृद्धि थी, किन्तु वे सब उनके दिव्य स्वांशों से उत्पन्न भगवान् के ही अंश थे, अतएव पृथ्वी के लिए वे महान् आनन्द के स्रोत थे। जब पृथ्वी के भार के सम्बन्ध में भगवान् ने उनका उल्लेख किया, तो उनके मन में पृथ्वी से उनके आसन्न लोप का भाव था। भगवान् कृष्ण के परिवार के सारे सदस्य विभिन्न देवताओं के अवतार थे और उन्हें भगवान् के साथ ही पृथ्वी से विलुप्त होना था। जब उन्होंने यदुवंश के सम्बन्ध में पृथ्वी के असह्य भार का उल्लेख किया, तो वे उनके विछोह भार का ही संकेत कर रहे थे। श्रील जीव गोस्वामी ने इस निष्कर्ष की पुष्टि की है।
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