श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 3: वृन्दावन से बाहर भगवान् की लीलाएँ  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.3.18 
अयाजयद्धर्मसुतमश्वमेधैस्त्रिभिर्विभु: ।
सोऽपि क्ष्मामनुजै रक्षन् रेमे कृष्णमनुव्रत: ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
अयाजयत्—सम्पन्न कराया; धर्म-सुतम्—धर्म के पुत्र (महाराज युधिष्ठिर) द्वारा; अश्वमेधै:—यज्ञ द्वारा; त्रिभि:—तीन; विभु:— परमेश्वर; स:—महाराज युधिष्ठिर; अपि—भी; क्ष्माम्—पृथ्वी को; अनुजै:—अपने छोटे भाइयों सहित; रक्षन्—रक्षा करते हुए; रेमे—भोग किया; कृष्णम्—भगवान् कृष्ण; अनुव्रत:—निरन्तर अनुगामी ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने धर्म के पुत्र महाराज युधिष्ठिर को तीन अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने भगवान् कृष्ण का निरन्तर अनुगमन करते हुए अपने छोटे भाइयों की सहायता से पृथ्वी की रक्षा की और उसका भोग किया।
 
तात्पर्य
 महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी पर आदर्श राजकीय प्रतिनिधि थे, क्योंकि वे भगवान् कृष्ण के निरन्तर अनुगामी थे। जैसाकि वेदों में (ईशोपनिषद्) में कहा गया है भगवान् इस दृश्य विराट सृष्टि के स्वामी हैं, जो बद्धजीवों को अपने साथ उनका सम्बन्ध पुनरुज्जीवित करने का और इस तरह भगवद्धाम वापस जाने का अवसर प्रदान करती है। भौतिक जगत की सम्पूर्ण प्रणाली उसी कार्यक्रम तथा योजना द्वारा व्यवस्थित है। जो भी इस योजना का उल्लंघन करता है, वह प्रकृति के नियम द्वारा दण्डित होता है, क्योंकि प्रकृति परमेश्वर के निर्देशानुसार कार्य करती है। महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी के सिंहासन पर भगवान् के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठापित हुए थे। राजा से सदैव भगवान् का प्रतिनिधि होने की अपेक्षा की जाती है। पूर्ण एकाधिपत्य के लिए भगवान् की इच्छा का प्रतिनिधित्व आवश्यक होता है और महाराज युधिष्ठिर इस परम नियम के अनुसार एक आदर्श राजा थे। राजा तथा प्रजा दोनों ही अपने कर्तव्य-निर्वाह से सुखी थे और इस तरह भौतिक प्रकृति के पूर्ण सहयोग से प्रजा की सुरक्षा तथा स्वाभाविक जीवन का भोग महाराज युधिष्ठिर तथा महाराज परीक्षित जैसे योग्य वंशजों के शासन में अपने आप प्राप्त थे।
 
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