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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 3: वृन्दावन से बाहर भगवान् की लीलाएँ  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  3.3.20 
स्‍निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।
चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
स्निग्ध—सौम्य; स्मित-अवलोकेन—मृदुहँसी से युक्त चितवन द्वारा; वाचा—शब्दों से; पीयूष-कल्पया—अमृत के तुल्य; चरित्रेण—चरित्र से; अनवद्येन—दोषरहित; श्री—लक्ष्मी; निकेतेन—धाम; —तथा; आत्मना—अपने दिव्य शरीर से ।.
 
अनुवाद
 
 वे वहाँ पर लक्ष्मी देवी के निवास, अपने दिव्य शरीर, में सदा की तरह के अपने सौम्य तथा मधुर मुसकान युक्त मुख, अपने अमृतमय वचनों तथा अपने निष्कंलक चरित्र से युक्त रह रहे थे।
 
तात्पर्य
 पिछले श्लोक में बतलाया गया है कि सांख्य दर्शन के सत्यों में स्थित भगवान् कृष्ण सभी प्रकार के विषयों से विरक्त हैं। प्रस्तुत श्लोक में यह बतलाया गया है कि वे लक्ष्मीदेवी के निवास हैं। ये दोनों बातें तनिक भी परस्पर विरोधी नहीं हैं। भगवान् कृष्ण बहिरंगा प्रकृति की विविधता से विरक्त हैं, किन्तु वे आध्यात्मिक प्रकृति या अपनी अन्तरंगा शक्ति का नित्य, आनन्दमय भोग करते हैं। जो अल्पज्ञ हैं, वे बहिरंगा तथा अन्तरंगा शक्तियों के इस अन्तर को नहीं समझ सकते। भगवद्गीता में अन्तरंगा शक्ति को परा प्रकृति कहा गया है। विष्णु पुराण में भी विष्णु की अन्तरंगा शक्ति को परा शक्ति कहा गया है। भगवान् कभी भी पराशक्ति की संगति से विलग नहीं होते। इस पराशक्ति का तथा इसकी अभिव्यक्तियों का वर्णन ब्रह्म-संहिता (५.३७) में आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि: के रूप में हुआ है। भगवान् नित्य आनन्दमय हैं और ऐसे दिव्य आनन्द से प्राप्त होने वाले आस्वाद से ज्ञात हैं। बहिरंगा शक्ति की विविधता के निषेध के लिए आवश्यक नहीं कि आध्यात्मिक जगत के सकारात्मक दिव्य आनन्द का निषेध किया जाय। अतएव भगवान् की सौम्यता, उनकी मुसकान, उनका चरित्र तथा उनसे सम्बद्ध सारी बातें दिव्य हैं। अन्तरंगा शक्ति की ऐसी अभिव्यक्तियाँ वास्तविक हैं जिनका भौतिक प्रतिबिम्ब (छाया) एकमात्र क्षणिक स्वरूप है, जिससे हर ज्ञानवान व्यक्ति को विरक्त रहना चाहिए।
 
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