इमम्—यह; लोकम्—पृथ्वी; अमुम्—तथा अन्य लोक; च—भी; एव—निश्चय ही; रमयन्—मनोहर; सुतराम्—विशेष रूप से; यदून्—यदुओं को; रेमे—आनन्द लिया; क्षणदया—रात में; दत्त—प्रदत्त; क्षण—विश्राम; स्त्री—स्त्रियों के साथ; क्षण— दाम्पत्य प्रेम; सौहृद:—मैत्री ।.
अनुवाद
भगवान् ने इस लोक में तथा अन्य लोकों में (उच्च लोकों में), विशेष रूप से यदुवंश की संगति में अपनी लीलाओं का आनन्द लिया। रात्रि में विश्राम के समय उन्होंने अपनी पत्नियों के साथ दाम्पत्य प्रेम की मैत्री का आनन्द लिया।
तात्पर्य
भगवान् ने अपने शुद्ध भक्तों के साथ इस जगत में आनन्द प्राप्त किया। यद्यपि वे भगवान् हैं और समस्त भौतिक आसक्ति से परे हैं, किन्तु फिर भी उन्होंने पृथ्वी पर अपने शुद्ध भक्तों के साथ तथा उन देवताओं के साथ जो समस्त भौतिक कार्यकलापों की व्यवस्था में शक्तिप्रदत्त निर्देशकों की भाँति स्वर्ग में उनकी सेवा में लगे रहते हैं, अत्यधिक अनुरक्ति प्रदर्शित की। उन्होंने अपने पारिवारिक जनों, यदुओं, के प्रति तथा उन सोलह हजार पत्नियों के प्रति जिन्हें रात्रि में विश्राम के समय भगवान् से मिलने का सुअवसर प्राप्त होता था विशेष आसक्ति प्रदर्शित की। भगवान् की ये सारी आसक्तियाँ उनकी अन्तरंगा शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं जिनकी बहिरंगा शक्ति केवल छायास्वरूप है। स्कन्द-पुराण के प्रभास-खण्ड में शिव तथा गौरी के मध्य हुई वार्ताओं से उनकी अन्तरंगा शक्ति की अभिव्यक्तियों की पुष्टि होती है। भगवान् द्वारा सोलह हजार गोपियों से मिलने का उल्लेख हुआ है, यद्यपि भगवान् हंस (दिव्य) परमात्मा हैं और सारे जीवों के पालनकर्ता हैं। ये सोलह हजार गोपियाँ सोलह प्रकार की अन्तरंगा शक्तियों का प्रदर्शन हैं। इसकी विशद व्याख्या दशम् स्कन्ध में की जाएगी। उसमें कहा गया है कि भगवान् कृष्ण चन्द्रमा के सदृश हैं और अन्तरंगा शक्ति रूपी गोपियाँ चन्द्रमा के चारों ओर के तारों के तुल्य हैं।
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