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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 3: वृन्दावन से बाहर भगवान् की लीलाएँ  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.3.23 
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीन: स्वयं पुमान् ।
को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुव्रत: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
दैव—अलौकिक; अधीनेषु—नियंत्रित होकर; कामेषु—इन्द्रिय भोग विलास में; दैव-अधीन:—अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित; स्वयम्—अपने आप; पुमान्—जीव; क:—जो भी; विश्रम्भेत—श्रद्धा रख सकता हो; योगेन—भक्ति से; योगेश्वरम्—भगवान् में; अनुव्रत:—सेवा करते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 प्रत्येक जीव एक अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होता है और इस तरह उसका इन्द्रिय भोग भी उसी अलौकिक शक्ति के नियंत्रण में रहता है। इसलिए कृष्ण के दिव्य इन्द्रिय-कार्यकलापों में वही अपनी श्रद्धा टिका सकता है, जो भक्ति-मय सेवा करके भगवान् का भक्त बन चुका हो।
 
तात्पर्य
 जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, भगवान् के दिव्य जन्म तथा कर्मों को कोई नहीं समझ सकता है। इसी तथ्य की यहाँ पर पुष्टि हुई है—भगवान् की भक्ति द्वारा प्रबुद्ध व्यक्ति ही भगवान् के कार्यों तथा अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित अन्य लोगों के कार्यों के अन्तर को समझ सकता है। इस भौतिक ब्रह्माण्ड में दृष्टिगत समस्त पशुओं, मनुष्यों तथा देवताओं का इन्द्रिय भोगविलास एक अलौकिक शक्ति द्वारा नियंत्रित होता है, जो प्रकृति या दैवी माया कहलाती है। कोई भी व्यक्ति इन्द्रिय भोग-विलास प्राप्त करने में स्वतंत्र नहीं है और इस जगत में हर व्यक्ति इन्द्रिय भोग-विलास के पीछे पड़ा रहता है। ऐसे लोग जो स्वयं ही अलौकिक शक्ति के नियंत्रण में होते हैं इस पर विश्वास नहीं कर सकते कि इन्द्रिय भोग विलास के मामले में भगवान् कृष्ण अपने से परे किसी अन्य नियंत्रण के अधीन नहीं होते। वे यह समझ ही नहीं पाते कि भगवान् की इन्द्रियाँ दिव्य हैं। ब्रह्म-संहिता में भगवान् की इन्द्रियों को सर्वशक्तिमान बतलाया गया है—अर्थात् वे किसी एक इन्द्रिय से अन्य इन्द्रिय के कार्य सम्पन्न कर सकते हैं। जिसका इन्द्रियाँ सीमित हैं उसे विश्वास ही नहीं होता कि भगवान् अपनी श्रवण की दिव्य शक्ति से भोजन कर सकते हैं और मात्र देखने से संभोग कर सकते हैं। नियंत्रित जीव अपने बद्ध जीवन में ऐसे इन्द्रिय कार्यों के विषय में स्वप्न तक नहीं देख सकता। किन्तु भक्तियोग के कार्यों से वह यह समझ सकता है कि भगवान् तथा उनके कार्य सदैव दिव्य हैं। जैसाकि भगवद्गीता (१८.५५) में भगवान् कहते हैं—भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वत:—यदि कोई व्यक्ति भगवान् का शुद्ध भक्त नहीं है, तो वह भगवान् के कार्यों के एक अंश को भी नहीं जान सकता।
 
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