श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 3: वृन्दावन से बाहर भगवान् की लीलाएँ  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.3.26 
तत्र स्‍नात्वा पितृन्देवानृषींश्चैव तदम्भसा ।
तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददु: ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ पर; स्नात्वा—स्नान करके; पितृन्—पितरों को; देवान्—देवताओं को; ऋषीन्—ऋषियों को; च—भी; एव— निश्चय ही; तत्—उसके; अम्भसा—जल से; तर्पयित्वा—प्रसन्न करके; अथ—तत्पश्चात्; विप्रेभ्य:—ब्राह्मणों को; गाव:—गौवें; बहु-गुणा:—अत्यन्त उपयोगी; ददु:—दान में दीं ।.
 
अनुवाद
 
 वहाँ पहुँचकर उन सबों ने स्नान किया और उस तीर्थ स्थान के जल से पितरों, देवताओं तथा ऋषियों का तर्पण करके उन्हें तुष्ट किया। उन्होंने राजकीय दान में ब्राह्मणों को गौवें दीं।
 
तात्पर्य
 भगवद्भक्तों में कई विभाग हैं जिनमें नित्यसिद्ध तथा साधनसिद्ध मुख्य हैं। नित्यसिद्ध भक्त कभी भी भौतिक वातावरण के क्षेत्र में नीचे नहीं गिरते भले ही कभी-कभी भगवान् का मिशन पूरा करने के लिए उन्हें भौतिक धरातल पर क्यों न आना पड़ता हो। साधनसिद्ध भक्त बद्धात्माओं में से चुने जाते हैं। साधन भक्तों में से कुछ मिश्रित तथा कुछ शुद्ध भक्त होते हैं। मिश्रित भक्त कभी-कभी सकाम कर्मों के प्रति उल्लास प्रदर्शित करते हैं और दार्शनिक चिन्तन में लगे रहते हैं। शुद्ध भक्त इन समस्त मिश्रणों से स्वतंत्र होते हैं और भगवान् की सेवा में पूर्णतया लीन रहते हैं, चाहे वे कहीं भी हों और किसी भी अवस्था में स्थित हों। भगवान् के शुद्ध भक्त पवित्र तीर्थस्थानों में जाने के लिए भगवान् की सेवा को ताक पर नहीं रखते। आधुनिक काल के महान् भगवद्भक्त श्रीनरोत्तम दास ठाकुर का गीत है, “तीर्थस्थानों में जाना मन का दूसरा मोह है, क्योंकि किसी भी स्थान पर की गई भगवान् की सेवा आध्यात्मिक सिद्धि की चरम परिणति है।”

उन भक्तों के लिए जो भगवान् की प्रेमाभक्ति से पूरी तरह तुष्ट होते हैं, विभिन्न तीर्थस्थलों में जाने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। किन्तु जो लोग उतने बढ़े-चढ़े नहीं हैं उन्हें तीर्थस्थानों में जाने तथा अनुष्ठान सम्पन्न करने के नियत कार्य करने होते हैं। यदुवंश के जो राजुकमार प्रभास गये उन्होंने तीर्थस्थान में सम्पन्न किये जाने वाले सारे कर्तव्यों को पूरा किया और अपने-अपने पितरों तथा अन्यों को अपने पुण्यकर्मों की भेंट चढ़ाई।

नियमत: हर मनुष्य ईश्वर, देवताओं, महान् ऋषियों, अन्य जीवों, सामान्य-जनों, पूर्वजों इत्यादि का ऋणी होता है, क्योंकि वह उनसे विविध प्रकार का योगदान प्राप्त करता है। अत: हर व्यक्ति को कृतज्ञता का ऋण चुकाना होता है। जो यदुगण प्रभास तीर्थस्थल गये उन्होंने राजसी दान में भूमि, स्वर्ण तथा अच्छी तरह पाली-पोसी गौवें भेंट करके अपना कर्तव्य निभाया जैसाकि अगले श्लोक में बतलाया गया है।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥